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माया और ईश्वरधारणा का क्रमविकास

वे यह भी जानते थे कि जो लोग पहले के मतों से कोई सम्बन्ध न रख कर एक नया मत स्थापित करना चाहते है, जो लोग जिस सूत्र में माला गुँथी हुई है उसी को तोड़ना चाहते है, जो शून्य के ऊपर नूतन समाज का गठन करना चाहते है वे पूरी तरह से असफल होंगे।

हम कभी भी किसी नूतन वस्तु का निर्माण नहीं कर सकते, हम केवल पुरानी वस्तुओ का स्थान परिवर्तन कर सकते है। वीज ही वृक्ष के रूप में परिणत हो जाता है, अत: हमे धैर्य के साथ शान्तिपूर्वक लोगों की सत्य की खोज में लगी हुई शक्ति को ठीक तरह से चलाना होगा, और जो सत्य पहले ही से ज्ञात है उसी को पूर्ण रूप से जानना होगा। अतएव प्राचीन काल की इस ईश्वर सम्बन्धी धारणा को वर्तमान काल के लिए एकदम अनुपयुक्त कह कर उड़ाये बिना ही उन लोगो ने उसमे जो कुछ सत्य है उसका अन्वेषण आरम्भ किया; उसी का फल वेदान्त-दर्शन है। वे प्राचीन सभी देवताओं तथा जगत् के शासनकर्ता एक ईश्वर के भाव से भी उच्चतर भावों का आविष्कार करने लगे―इसी प्रकार उन्होने जो उच्चतम सत्य आविष्कृत किया उसी को निर्गुण पूर्णब्रह्म नाम से पुकारते हैं―इसी निर्गुण ब्रह्म की धारणा में उन्होंने जगत् के बीच में एक अखण्ड सत्ता को देख पाया।

"जिन्होंने इस बहुत्वपूर्ण जगत् में उस एक अखण्ड स्वरूप को देख पाया है, जो इस मर्त्य जगत् में उस एक अनन्त जीवन को देख पाते हैं, जो इस जड़ता तथा अज्ञान से पूर्ण जगत् में उसी एक स्वरूप को देख लेते हैं उन्हीं को चिरशान्ति मिलती है और किसी को नहीं।"

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