अतः वे हमारी तुम्हारी अपेक्षा सहस्रगुना दुःख-सुख का बोध करते हैं। कुत्ता या व्याघ्र जिस स्फूर्ति और लगन के साथ भोजन करते हैं उस तरह कौन मनुष्य कर सकता है? इसका कारण है कि हमारी समस्त कार्यों की प्रवृत्ति इन्द्रियो में नहीं है, बुद्धि में है, आत्मा में है। किन्तु कुत्ते की इन्द्रियों में ही प्राण पड़े रहते है, वह इन्द्रियसुख के- लिये उन्मत्त हो जाता है, वह जितने आनन्द के साथ इन्द्रियसुख का उपभोग करता है, मनुष्य उतना नहीं कर सकता; और जैसा उसका यह सुख है उसी परिमाण में उसका दुःख भी है।
जितना सुख है उतना ही दुःख है। यदि मनुष्येतर प्राणी इतनी तीव्रता से सुख की अनुभूति करते हैं तो यह भी सत्य है कि उनके दुःख की अनुभूति भी उतनी ही अधिक तीव्र होगी―मनुष्य की अपेक्षा सहस्त्रगुनी तीव्र होगी, परन्तु फिर भी उन्हे मरना होगा! तो फिर मरने में भी उन्हे मनुष्य की अपेक्षा सहस्त्रगुना कष्ट होगा। फिर भी हमे उनके कष्ट की चिन्ता न करते हुये उन्हें मारना पड़ता है। यही तो माया है और यदि हम मान ले कि ईश्वर हमारी ही तरह का एक व्यक्ति है (सगुण) जिसने यह सृष्टि रची है तो ये सब सिद्धान्त और व्याख्यायें जो यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि बुराई में ही भलाई छिपी रहती है, ये सब पर्याप्त नहीं हैं। उपकार चाहे सैकड़ो हो किन्तु अपकारों से उपकार क्यों होंगे? इस सिद्धान्त के अनुसार मैं यदि अपनी इन्द्रियों के सुख के लिये दूसरों का गला काटूँ तो कोई बुराई नहीं है। अतएव यह युक्ति ठीक नहीं मालूम होती। बुराई में से भलाई क्यो निकलेगी? इस प्रश्न का उत्तर देना होगा। किन्तु इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है, यह बात भारतीय दर्शन को माननी पड़ी।