यह बात कोई मतविशेष नहीं है कि यह जगत् टैण्टालस का नरक है। यह एक सत्य है। हम जगत् के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते, परन्तु हम यह भी नहीं कह सकते कि हम कुछ नहीं जानते। इस जगत्-शृंखला का अस्तित्व है यह हम नहीं कह सकते, और जब हम उसके सम्बन्ध में चिन्ता करने लगते है तब हम देखते है कि हम कुछ भी नहीं जानते। यह हमारे मस्तिष्क का पूर्ण भ्रम हो सकता है। शायद मैं केवल स्वप्न देख रहा हूँ। मैं स्वप्न देख रहा हूँ कि मैं आपसे बाते कर रहा हूँ और आप मेरी बात सुन रहे है। कोई भी इसके विरुद्ध प्रमाण नहीं दे सकता कि यह स्वप्न नहीं है। 'मेरा मस्तिष्क' यह भी तो एक स्वप्न हो सकता है, और वास्तविक बात यह है कि अपना मस्तिष्क देखा किसने है? वह तो हमने केवल मान लिया है। सभी विषयों के सम्बन्ध में यही बात है। शरीर हमारा है यह भी तो हम मान ही लेते है, और यह भी नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते। ज्ञान और अज्ञान के बीच की यह अवस्था, यह रहस्यमय पहेली, यह सत्य और मिथ्या का मिश्रण―कहाँ जाकर इनका मिलन हुआ कौन जानता है? हम स्वप्न में विचरण कर रहे है―अर्ध निद्रित,अर्ध जाग्रत―जीवनभर एक पहेली में आबद्ध, यही हममे से प्रत्येक की दशा है! सभी प्रकार के इन्द्रियज्ञान की यह दशा है। सब दर्शनों की, विज्ञान की, सब प्रकार के मानवीय ज्ञान की―जिनको लेकर हमे इतना अहङ्कार है उन सबकी भी यही दशा है―यही परिणाम है; यही ब्रह्माण्ड है।
चाहे पदार्थ कहो, या भूत कहो, मन कहो या आत्मा कहो, वात एक ही है―हम यह नहीं कह सकते कि ये सब है और यह भी