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माया और ईश्वरधारणा का क्रमविकास

तरंग उठती है जो हमें आगे बढ़ने को बाध्य करती है, परन्तु जैसे ही हम एक पाँव आगे बढ़ाते हैं वैसे ही एक धक्का लगता है। हम सब टैण्टालस की भाँति इस जगत् में जीवित रहने को और मरने को मानो विधि-विधान से अभिशप्त हैं। पंचेन्द्रिय द्वारा सीमाबद्ध जगत् से अतीत आदर्श हमारे मस्तिष्क में आते है किन्तु बहुत सी चेष्टायें करने के बाद हम देखते है कि उन्हें हम कभी भी कार्य रूप में परिणत नहीं कर सकते। इसके विरुद्ध हम अपने आस पास की अवस्था की चक्की में पिस कर चूर चूर हो कर परमाणुओं में परिणत हो जाते है। और यदि हम आदर्शप्राप्ति की चेष्टा का परित्याग करके केवल सांसारिक भाव को लेकर रहने की चेष्टा करते हैं तो भी हमे पशुजीवन बिताना पड़ता है और हमारी अवनति हो जाती है। अतएव किसी ओर भी सुख नहीं है। जो लोग इस जगत् में जिस अवस्था में उत्पन्न हुए हैं उसी अवस्था में रहना चाहते है, तो उनके भाग्य में भी दुःख ही है। और जो लोग सत्य के लिये―इस पाशविक जीवन से कुछ उन्नत जीवन के लिये―प्राण देने को आगे बढ़ते हैं उन्हें सहन गुना दुःख होता है। यही वस्तुस्थिति है और इसकी कोई व्याख्या भी नहीं है, व्याख्या हो भी नहीं सकती। किन्तु वेदान्त इससे बाहर निकलने का मार्ग बतलाता है। याद रखिये कि ये सब बाते बोलते समय मुझे ऐसी अनेक बातें कहनी पड़ेंगी जिनसे आपको कुछ भय लगेगा। किन्तु जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे आपने याद रखा, भलीभाँति हजम किया और दिन रात चिन्तन किया तो यह आपके अन्दर बैठ जायगी, आपकी उन्नति करेगी और सत्य को समझने तथा सत्य में प्रतिष्ठित होने में आपको समर्थ करेगी।