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ज्ञानयोग

किन्तु यह जोड़-गाँठ कब तक चल सकती है? जिस प्रकार जगत् के रहस्य की व्याख्या सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती गई उसी प्रकार यह रहस्य मानों और भी रहस्यमय होता गया। देवता अथवा ईश्वर के गुण जिस प्रकार समयुक्तान्तर श्रेणी (Anthmetical progression) के नियम से बढ़ने लगे उसी प्रकार सन्देह भी समगुणितान्तर श्रेणी (Geometrical progression) के नियम से बढ़ने लगे। निष्ठुर जिहोवा के साथ जगत् का सामञ्जस्य स्थापित करने में जो कठिनता होती थी उससे अधिक कठिनता होने लगी ईश्वरसम्बन्धी नवीन धारणा के साथ जगत् का सामञ्जस्य स्थापित करने में। सर्वशक्तिमान और प्रेममय ईश्वर के राज्य में ऐसी पैशाचिक घटनाये क्यों घटती हैं? सुख की अपेक्षा दुःख इतना अधिक क्यों है? साधु भाव जितना है, असाधुभाव उससे अधिक क्यों है? जगत् में कुछ भी खराबी नहीं है ऐसा समझ कर हम आँखे बन्द करके बैठे रह सकते है; किन्तु इससे जगत् की वीभत्सता में तो कुछ परिवर्तन होता नहीं। यदि इसे हम बहुत अच्छे शब्दों में कहे तो कह सकते है कि यह जगत् टैण्टालस के नरक* के समान है; उससे यह किसी अंश में उत्कृष्ट नहीं। प्रबल प्रवृत्तियों, इन्द्रियों को चरितार्थ करने की सभी वासनायें विद्यमान हैं, परन्तु उनकी पूर्ति करने का उपाय नहीं है। हमारी इच्छा के विरुद्ध हमारे अन्दर एक


*ग्रीक लोगों की एक पौराणिक कथा है कि टैण्टालस नामक राजा पाताल के एक तालाब में गिर गया था। तालाब का जल उसके होठों तक आता था, परन्तु जैसे ही वह अपनी प्यास बुझाने का प्रयत्न करता था वैसे ही जल कम हो जाता था। उसके सिर के ऊपर नाना प्रकार के फल लटकते थे, और जैसे ही वह इन्हें खाना चाहता था वे ग़ायब हो जाते थे।