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ज्ञानयोग


अधिक बढी नहीं है। पहले पहल यह प्रेम जाति तक सीमित रहा। ये सब देवता केवल अपने सम्प्रदाय मात्र से प्रेम करते थे। प्रत्येक देवता एक जातीय देवमात्र था, केवल उसी जाति विशेष का रक्षक मात्र था। और जिस प्रकार भिन्न भिन्न देशों के विभिन्न वशीय लोग अपने को उस एक विशेष पुरुष का वंशज कहते है जो उस वश के प्रतिष्ठाता होते हैं, उसी प्रकार कभी कभी किसी जाति के लोग अपने के एक देवता का वशधर समझते थे। प्राचीन काल में अनेक जातियाॅ थीं और आज भी हैं जो अपने को चन्द्रवंशी या सूर्यवंशी कहती हैं। सस्कृत के प्राचीन ग्रन्थो मे आपने बड़े बड़े सूर्यवशी वीर सम्राटो की कथाये पढ़ी होगी। ये लोग पहले चन्द्रसूर्य के उपासक थे; बाद मे ये अपने को चन्द्र और सूर्य का वंशज कहने लगे। अतः जब यह जातीय भाव आने लगा तब किंचित् प्रेम जागा, परस्पर एक दूसरे के प्रति एक कर्तव्य-भाव भी आया और कुछ सामाजिक शृंखला की उत्पत्ति हुई; और इसी के साथ साथ यह भावना भी आने लगी कि हम एक दूसरे का दोष सहन या क्षमा बिना किये कैसे एक साथ रह सकेगे? मनुष्य किस प्रकार अन्ततः कभी न कभी अपनी प्रवृत्तियो का बिना संयम किये दूसरो के साथ, यहाॅ तक कि एक व्यक्ति के साथ भी रह सकता है? यह असम्भव है। इसी प्रकार संयम की भावना आयी। इसी सयम की भावना में सम्पूर्ण समाज गुॅथा हुआ है, और हम जानते हैं कि जो नर-नारी इस सहिष्णुता या क्षमा रूपी शिक्षा से रहित है वे अत्यन्त कष्ट में जीवन बिता रहे हैं।

अतएव जब इस प्रकार धर्म का भाव आया तब मनुष्य के मन मे एक उच्चतर अपेक्षाकृत अधिक नीतिसगत भाव का आभास