सीधे ढंग से कहे तो जिस प्रकार हमारी उन्नति होती है, जिस प्रकार हमारा स्वरूप प्रकाशित होता है उसी प्रकार देवता भी अपना स्वरूप प्रकाशित करते रहते हैं।
अब हम मायावाद को समझ सकेगे। संसार के सभी धर्मों ने
इस प्रश्न को उठाया है--संसार मे इतना असामञ्जस्य क्यों है?
संसार मे इतना अशुभ क्यों है! किन्तु हम धर्मभाव के प्रथम आविर्भाव के समय इस प्रश्न को उठते नही देखते; इसका कारण यह है कि शायद आदि मनुष्य को जगत् का असामञ्जस्य दिखाई नहीं पड़ता था, उसके चारों ओर कोई असामञ्जस्य नही था, किसी प्रकार का मतविरोध नही था, भले बुरे की कोई प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। केवल उसके हृदय में दो वस्तुओ का संग्राम हो रहा था। एक कहती थी--यह करो, और दूसरी उसी को करने का निषेध करती थी। प्राथमिक मनुष्य भावनाओं के दास थे। उनके मन मे जो आता था वे वही करते थे। वे इन भावनाओं के सम्बन्ध मे विचार करने तथा उनका संयम करने की चेष्टा बिलकुल ही नहीं करते थे। इन सब देवताओं के सम्बन्ध मे भी यही बात है। ये लोग भी उपस्थित प्रवृत्तियों के आधीन थे। इन्द्र आये और उन्होंने दैत्यबल को छिन्न भिन्न कर दिया। जिहोवा किसी के प्रति सन्तुष्ट थे तो किसी से रुष्ट थे, क्यो, यह कोई भी नहीं जानता था, जानना भी नही चाहता था। इसका कारण, उस समय अनुसन्धान की प्रवृत्ति ही लोगो मे नहीं जागी थी, इसलिये वे जो कुछ भी करते थे वही ठीक था। उस समय भले बुरे की कोई धारणा ही नहीं थी। हम जिन्हे बुरा कहते हैं ऐसे बहुत से कार्य देवता लोग करते थे; हम वेदो मे