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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

इसके बाद फिर प्रश्न उठता है -- उपलब्धि के बाद क्या होता है? मान लो कि हमने जगत् का यही अखण्ड भाव (हम ही एक मात्र अनन्त पुरुष है यह भाव) उपलब्ध किया; मान लो कि हमने जान लिया कि आत्मा ही एक मात्र है और वह विभिन्न रूप से प्रकाशित हो रहा है; इस प्रकार जान लेने के बाद हमारा क्या होता है? तब क्या हम निश्चेष्ट होकर एक कोने मे बैठ कर मर जाते है? इसके द्वारा जगत् का क्या उपकार होगा? वही प्राचीन प्रश्न फिर घूम कर आता है! पहले तो इसके द्वारा जगत् का उपकार होगा ही क्यों? इसके लिये भी कोई युक्ति है? लोगों को यह प्रश्न करने का अधिकार ही क्या है कि इससे जगत् का क्या भला होगा? इसका अर्थ क्या है?--छोटे छोटे बच्चे मिठाई पसन्द करते है। मान लो कि तुम विद्युत् के विषय मे गवेषणा कर रहे हो। बच्चा तुम से पूछता है, 'इससे क्या मिठाई खरीदी जाती है?' तुमने कहा -- 'नहीं।' 'तो इससे क्या लाभ?' तत्वज्ञान की आलोचना मे व्यस्त देख कर भी लोग इसी प्रकार की जिज्ञासा करते है, 'इससे जगत् का क्या उपकार होगा? क्या इससे हमें रुपया मिलेगा? 'नहीं।तो फिर इससे क्या लाभ है?' उपकार का अर्थ लोग इतना ही समझते है। तो भी धर्म की इस प्रत्यक्ष अनुभूति से जगत् का पूर्ण उपकार होता है। लोगो को भय लगता है कि जब वे यह अवस्था प्राप्त करेगे, जब उन्हे ज्ञान होगा कि सभी एक है तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जायगा; जीवन मे जो कुछ मूल्यवान है वह सब चला जायगा; इस जीवन में और पर जीवन मे जो कुछ भी उन्हे प्रिय है वह सब उनके लिये कुछ भी न रहेगा। किन्तु लोग यह बात एक बार सोच कर भी नहीं देखते कि जो सब व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता की ओर से उदासीन