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ज्ञानयोग


समझने के लिये न्याय-युक्ति, तर्क-वितर्क आदि का आश्रय नहीं लेना पड़ता। उसके लिये तोसत्य अन्तरात्मा के मर्म मर्म में प्रविष्ट हो गया है -- प्रत्यक्ष का भी प्रत्यक्ष हो गया है। वेदान्तियों की भाषा मे कहे तो कहेंगे कि वह उसके लिये करामलकवत् हो गया है। प्रत्यक्ष उपलब्धि करने वाले लोग निःसंकोच भाव से कह सकते हैं, 'यही आत्मा है।' तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो, वे तुम्हारी बात पर केवल हॅसेगे, वे उसे अण्ड बण्ड बकवास ही समझेगे। बालक चाहे कुछ भी बोले उससे वे कुछ कहते नहीं। वे तो सत्य की उपलब्धि करके भरपूर हो गये हैं। मान लो कि तुम एक देश देख कर आये हो और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे कि उस देश का कहीं अस्तित्व ही नही है; इसी तरह वह व्यक्ति तर्क करता जाता है, किन्तु उसके प्रति तुम्हारा भाव यही होगा कि वह पागलखाने मे भेज देने के योग्य है। इसी प्रकार जो धर्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि कर चुके है वे कहते है कि "जगत् मे धर्म सम्बन्धी जो बाते सुनी जाती है वे सब केवल बालको की बाते है। प्रत्यभानुभूति ही धर्म का सार है।" धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। प्रश्न यह है कि क्या तुम इसके अधिकारी हो चुके हो? क्या तुम्हे धर्म की वास्तव में आवश्यकता है? यदि तुम ठीक ठीक चेष्टा करो तो तुम्हें प्रत्यक्ष उपलब्धि होगी, और तभी तुम वास्तव मे धार्मिक होओगे। जब तक यह उपलब्धि तुम्हे नहीं होती तब तक तुममे और नास्तिक में कोई भेद नहीं। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते है, किन्तु जो कहता है कि 'मैं धर्म मे विश्वास करता हूॅ' और उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा कभी नहीं करता वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है।