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९२ :: तुलसी चौरा
 

इरैमुढिमणि के जाते ही सीमावय्यर अहमद अली के साथ मठ के कारिंदे के उकसाने पर ही आए होंगे, यह शर्मा जी अच्छी तरह समझ गए। वह सीधा सीमावय्यर के पास गया होगा और पूरी बात कह सुनाई होगी। शर्मा जी को लगा कि सीमावय्यर सब कुछ जान कर भी अनजान बनने की कोशिश कर रहे थे। उस बात को उसी ढंग से इन्होंने संभाल लिया। सीमावय्यर के पत्र के साथ वे अपनी टिप्पणी भेज देंगे। किसी विरोध की गुंजाइश नहीं रह जायेगी। उनके पांडित्य और विवेक ने उन्हें इतना आत्म संतोषी बना दिया था कि ईर्ष्या, द्वेष, झगड़ों से वे दूर ही रहना चाहते थे। वे ऐसी कोई हरकत या ऐसी कोई भी बात नहीं कहना चाहते थे जिनसे दूसरों को चोट पहुँचे। यही वजह थी कि वे सीमा- वय्यर के साथ किसी विवाद में उलझना नहीं चाहते थे।

संध्या वंदन के लिए वे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगे तो तीन चार वैदिक पंडित जाप कर रहे थे। जाप समाप्त कर उनके पास आए। सुना, बेटा आया है?

पहले प्रश्न का उत्तर मिलने के बाद अगला सवाल कुछ सकुचा कर पूछा―

'साथ में, कोई और भी है।'

'हो' शर्मा जी ने एक शब्द में उत्तर दिया।

'उनका लहजा ही कुछ ऐसा था कि वे आगे कुछ पूछने का साहस नहीं कर पाए। शर्मा जी नदी तट से लौटे तो अँधेरा घिर चुका था। शिवालय के घंटे शाम के सन्नाटे को तोड़ रहे थे। शिवालय में माथा टेककर ही दे घर लौटे। बीच में कई लोग मिले। औपचारिक प्रश्न, कई जिज्ञासाएँ। वही उत्तर…वही समाधान।

घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, ओसारे पर कामाक्षी की तेज आव़ाज सुनाई दी। पारु और कमली बैठक में कामाक्षी के सामने खड़ी थी।

रवि शायद अब तक घर नहीं लौटा था। शर्मा जी के भीतर