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तुलसी चौरा :: ९१
 


तो गुत्थी अपने आप पहले सुलझ गयी। डोसे के लिए आटा पीसती कामाक्षी ने पूछा, 'सुनिए, बाहर शायद कुछ लोग बैठे थे, मैंने पाक को आवाज लगाकर संझनाती रखामे को कहा था। रख आयी कि नहीं। ढीठ हो गयी है लौंडिया। दस बार बावाज लगा चुकी हूँ। जवाब देते नहीं बनता। बस दो अक्षर क्या पड़ जाती है, सिर चढ़ जाता है इनका।'

'पारू कहाँ है? वह तो अभी लौटी नहीं।' शर्मा बी यह वाक्य बोलते-बोलते रुक गये।

'संशवाती रखी है आले में। तुम अपना काम करो,' शर्मा जी ने कहा। कमली का नाम लेकर उसे… किसी वाद विवाद में उलझाना नहीं चाहते थे।'

अच्छा हुआ, कमली भी इस वक्त यहाँ नहीं थी। ऊपर थी शायद। रवि को अपने साथ ले जाना चाहते थे, चार सीढ़ियाँ चढ़ कर आवाज लगायी।

'वह तो अपने किसी दोस्त से मिलने गये हैं।' कमली ने कहा 'कोई काम है? बताइए मैं किये देती हूँ।'

'कुछ नहीं बिटिया! तुम कुछ पढ़ रही थी ना, पढ़ो' शर्मा जी सीढ़ियाँ उतर आए। कमली को आप कहते-कहते रुक गये। गाँव की लड़कियों, बहुओं को, वे तुम कहकर ही सम्बोधित करते हैं उसी उन्न की हो तो हैं! 'आप' कहना अच्छा नहीं लगता। और फिर उनका मन कमली को गैर नहीं समझ पाया था। उसका सुन्दर गम्भीर व्यक्तित्व, भारतीय परम्परा के प्रति रुचि उसकी जिज्ञासा और अपने विपुल ज्ञान से उसने शर्मा जी का मन जीत लिया था।

कामाक्षी को आवाज पर खुद ही संझवाती चुपचाप जलाकर रख गयी। उसका यह व्यवहार उन्हें बहुत सन्तोष ले गया। बस सीमावय्यर की उपस्थिति ही कुछ खटकने वाली बात रही और फिर ऊपर से सीमावय्यर की कमली के प्रति जिज्ञासा। -