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तुलसी चौरा :: ६९
 

सकता। क्योंकि ईमानदार व्यक्ति ही दूसरे व्यक्ति की बेईमानी का परिमाप बनता है साथ ही वह बेईमानी में बाधक भी बनता है। पंडित जी सीमावय्यर के लिए कुछ वैसे ही समझे जाते थे। शर्मा जी का मन गरल विश्वासी था यही कारण है कि सीमावय्यर के साथ भी शर्मा जी उसी सहजता से पेश आते। क्रोध और ईर्ष्या पर उनके ज्ञान और विवेक ने विजय प्राप्त कर ली थी। वे मानसिक रूप से परिपक्व हो चुके थे।

सीमावय्यर की बात सोचते हुए, शर्मा जी डाक देखने लगे। पहला पत्र इरैमुडिमणि के सम्बन्धित था।

'यदि किराया नियमित रूप से भरने के योग्य व्यक्ति मिल जाएँ तो शर्मा जी स्वयं किराये पर उठा दें।' श्रीमठ के मैनेजर ने उत्तर दिया था। दूसरे पत्र में बटाई का लाभ गरीब किसानों को दिलवाने पर जोर दिया गया था। कुछ जमींदार और उनके कारिन्दे या धनी ठाकुर, गरीब किसानों के मार्फत स्वयं बटाई का काम उठा लेते। थोड़े बहुत रुपये देकर उन गरीब किसानों का मुँह बंद कर देते थे। इस आशय के एकाध शिकायत पत्र भी साथ में नत्थी किये गये थे।

अगला पत्र स्कूल के छात्र-छात्राओं के लिए भगवत्‌गीता, तिरुकुरल प्रतियोगिता आयोजित करने से सम्बन्धित था।

चौथे पत्र में, संस्कृति वैदिक पाठशाला के संदर्भ में कुछ बातें पूछी गयी थीं। अगले पत्र में इलाके के उन पुराने मन्दिरों का ब्यौरा मंगवाया था, जिनका निर्माण कार्य बाकी है।

पत्रों को भीतर जा कर रख दिया और संध्यावंदन करने नदी की ओर चले गये। लौटते हुये रास्ते में इरैमुडिमणि की दुकान की ओर निकल गये।

दुकान में भीड़ नहीं थी। लगा, दुकान बंद करने का समय है। इरैमुडिमणि के संगठन के कुछ लोग वहाँ बातें कर रहे थे।