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५४ :: तुलसी चौरा
 


समझ रहा था। उसे लगा सारा आक्रोश इसी शब्द पर उतर आया है। बाऊ जी भी शायद कुछ पिघल गये हैं। पर अम्मा! अम्मा की सख्ती को गलाना बेहद टेढ़ा काम है। उसके मन की तरह उसके शब्द भी तीखे और संक्षिप्त हो गये थे। दस मिनट से अधिक उसे बाहर ही रहना पड़ा। अम्मा बाहर निकली।' अब से परे हट कर बड़े हो जाओ हथेली आगे करी।' अम्मा बोली।

रवि के मन में एक बचकानी शंका भी उभर आयी। कहीं अम्मा बेंत तो नहीं लगाएँगी। पर हुआ कुछ और ही।

अम्मा मक्खन में गुड़ मिलाकर उसकी हथेली पर रख दिया। 'खा लो! तुम्हें पसन्द है न? 'अम्मा सतर्क थी कि हथेली छू न जाए।

बिसी भी उन में किसी भी महौल में, किसी के भी समक्ष अपने पेट जाए बेटे को बिल्कुल बच्चे की तरह बदल देने की कला सिर्फ मां ही जानती है। ज्ञान, अहंकार, यश, प्रतिभा, घमंड, उम्र―से तमाम मुखौटे मातृत्व के समक्ष किस कदर उतरने लगते हैं।

विदेश में रहने वाले नामी प्रोफेसर को उस माँ ने क्षण भर में ही, नंगे धड़गे शरारती शिशु के रूप में बदल डाला।

मक्खन को निगलता हुआ रवि बोला, 'तुमने हथेली आगे करने को कहा था न अम्मा, मैं तो डर ही गया था कि कहीं बेंत न लगा बैठो।'

'बेंत से तो क्या, तूने जो काम किया है, लगता है, तुम्हें इस बेलन से ही चार हाथ लगा दूँ।'

इस वाक्य में प्यार और गुस्से का सानुपातिक मिश्रण था। रवि कुछ कहता कि मीनाक्षी दादी आ गयी। रवि ऊपर जाने लगा, पर दादी ने उसे रोक लिया।

'कौन? रवि है न? सुबह आये हो? ठीक ठाक तो हो न?'

'हो दादी! ठीक हूँ।' रवि खिसकने लगा।