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४४ :: तुलसी चौरा
 


पर ही अन्य पत्रों के साथ उसे भी रख दिया था। शाम को कुमार, पार्वती दोनों में ही पत्र पड़ा। चित्र भी देखा। शर्मा जी को लगा अब बात उस सीमा तक पहुँच गयी है, जब तीली जलती हुई उंगली के पास तक पहुँच जाती है। हड़बड़ाहट में या तो तीली फेंकनी होगी या उँगली जलानी होगी। शुरू-शुरू में उनके भीतर जो नफरत और क्रोध घर कर रहा था, वह जाने कहाँ बिला गया। कुछ हजार और खर्च कर उस पुराने ढंग के मकान में एक अलग कमरा, सटा हुआ स्नानघर, दाश बेसिन दर्पण, खाने की मेज, कुसियाँ–सारी सुविधायें इकट्ठी कर ली गयी थी। रवि ने लिखा था कि वह दो दिन बम्बई रहेगा फिर मद्रास से रेल द्वारा शंकरमंगलम आयेगा। रवि ने किसी को भी मद्रास आने से मना कर दिया था। पहले तो दिन धीरे-धीरे रेंग से लग रहे थे, फिर तो जैसे पंख लगा कर उड़ने लगे।

'तुम बैलगाड़ी लिए मत पहुँच जाना। मेरी कार हाजिर है। एस्टेट वाले शारंग पाणि नायडू से भी कार माँग रखी है। सब लोग चलेंगे, उन्हें लेने। उस दिन एक शादी में भी जाना है। तुम लोगों को पहुँचाकर मैं चला जाऊँगा।' वेणु काका बोले।

शर्मा जी बोले, 'यह तो अच्छा हुआ कि इस महीने से गाड़ी पौने छह बजे आने लगी हैं। वरना पहले तो साढ़े तीन आया करती थी। बड़ी दिक्कत होती थी।'

'कुमार, पार्वती और रवि की माँ भी चलेंगी न स्टेशन?'

'कुमार और पार्वती दोनों आ रहे हैं। उसका कोई ठिकाना नहीं। कल शुकवार भी है। पूजापाठ का दिन है।'

'एक दिन पूजापाठ जल्दी निपटा लेगी। इतनी दूर से बेटा लौट रहा है, माँ को स्टेशन आना ही होगा।'

'मैं उसे समझा कर देखता हूँ। पर मुझे तो शक है, उसके आने में।'

'चुप रहो यार। मैं सुबह चार बजे बसन्ती को भिजवाकर सब