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तुलसी चौरा :: २३
 

'अभी तक तो नहीं हुआ काका। अब लगता है, हो जाऊँगा?'

'आप ऐसी ऊल जलूल बातें क्यों करते हो शर्मा जी? ईश्वर की कृपा से आप को कुछ नहीं होगा। जो होगा उसकी इच्छा से ही होगा। बस इतना अनुरोध जरूर करूँगा कि कुछ दिनों के लिए मन शांत रखें।' देणु काका ने प्यार भरे स्वर में कहा।

'रवि बहुत दिनों के बाद लौट रहा है। आप अपना मन शांत कर लें। हमारी भारतीय परम्परा परिवार के बंधनों को महत्व देती है। इस बात की तारीफ वे लोग करते हैं। हम संयुक्त परिवार की बात कहते हैं, ये बंधन, यह आपसी स्नेह, उन लोगों के लिये अपूर्व अनुभव है। उनके सामने बाप बेटे एक दूसरे के खिलाफ खड़े होंगे तो, सोचिए कैसा लगेगा? वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि बसँती ने सड़क की ओर देखते हुए कहा,' 'काकू, पारू शायद आपको ढूँढ़ती हुई आ रही है।'

शर्मा जी ने सड़क की ओर देखा। बसंती बाहर निकल आयी।

'बाऊ भूमिनाथपुरम वाले मामा जी आए हैं। कह रहे थे लगन पत्र तैयार करना है। एक घंटे में आकर ले जाएँगे।'

'कौन?' रामस्वामी...? अरे हाँ, भूल ही गया था। आज संझा भूमिनाथपुरम वरीच्छ में जाना है।'

'तो क्या हुआ? यहाँ से भूमिनाथपुरम कौन बहुत दूर है। नदी पार ही तो है। सूरज ढलने लगे तो निकल लीजिए घर से।' वेणु काका ने कहा। शर्मा जी की लड़की पार्वती लहँगा चुनरी पहनी थी। मुश्किल से बारह की उम्र होगी, पर तीन चार साल अधिक की ही लगती है। भरी हुई देह, सुन्दर नाक नक्श, एक दम साफ रंग। काले घुँघराले बाल। एक बार कोई देख ले, दुबारा जरूर देखना चाहेगा।

'क्यों री, स्कूल छूट गया क्या अभी तो छूटने में वक्त है।' बसँती ने पूछा 'चार, पाँच टीचर छुट्टी पर हैं, दीदी। इसलिये आखिरी पीरियड छूट गया।'