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१५४ :: तुलसी चौरा
 

शार्मा जी को शास्त्री जी के मन्दबुद्धि पर तरस आ गया। वे फिर वोले, 'ईश्वर तो स्वयं लोगों के लिये सरल शीलता का उदाहरण है। हम सहनशील व्यक्ति को देवता की उपाधि देते हैं। मेरे लिए तो ईश्वर क्षुद्र स्वार्थी कतई नहीं हो सकता।'

'आप यह क्या कह रहे हैं? उसके साथ मिल बैठकर आप भी उनकी तरह बातें करने लगे हैं।'

'नहीं, 'यह बात नहीं कई बार आस्तिक भी अपनी अज्ञता में ईश्वर का अपमान कर देते हैं। वह भी एक प्रकार से निंदा ही है आपने अब जो कहा है, वह भी कुछ ऐसा ही है।

हमारा द्वेष, हमारा अज्ञनाता, हमारे भीतर बदले की भावना सब कुछ इस ईश्वर पर आरोपित कर लेते हैं और कह देते हैं कि ईश्वर सर्वनाश करेगा, कितनी मूर्खता है, कभी सोचा है आपने। आपने तो वेद उपनिषद का पाठ किया है, क्या लाभ हुआ भला बताइये।

शर्मा जी नहीं चाहते थे, फिर भी उनके वाक्य में कड़वाहट घुल गयी। शास्त्री ने शर्मा की बातों का कोई उत्तर नहीं दिया और गुस्से में पैर पटकते हुए सीमावय्यर के ओसारे पर जा पहुँचे। वहाँ पंचायती लोगों की गोष्ठी जमी हुई थी। इनके पहुँचने के पहले भी वहाँ शर्मा विरोधी चर्चा ही चल रही थी। सीमावय्बर सबको मुफ्त में पान पेशकर रहे थे और इस शर्मा विरोधी अभियान को उत्साहित कर रहे थे।

शास्त्री ने आकर पूरी बात बतायी तो सीमावय्यर का उत्साह और बढ़ गया। मेरे बाग में पम्पलेट के मोटर को चुराने की योजना थी उस इरैमुडिमणि की। अच्छा हुआ बटाई वाले वक्त पर पहुँच गये और यह शर्मा उसकी तरफदारी कर रहा है। इसकी तो मति मारी गयी है। क्या करे बेचारे। उनके ऊपर मार भी तो कैसी पड़ी है। लड़का एक फ्रेंचन को घसीट लाया। अब उसका ब्याह करना पड़ रहा है।