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११० :: तुलसी चौरा
 


दार होना चाहिये बस! यही वे चाहते थे।'

'तो यह नास्तिक बनिया आपको ईमानदार लगा, क्यों?'

'कोई क्या है, इससे मुझे कुछ लेना देना नहीं। वह कैसे है, मुझे यही देखना है।'

'यही तो हम भी आपसे पूछ रहे हैं। यानी कि आप जानते हैं वे कैसे हैं। और जानबूझकर यह किया गया है।'

विवाद बढ़ने लगा। शर्मा जी समझ गए यह सारी आग सीमा- वय्यर की लगायी है। जाते-जाते शर्मा जी को भला बुरा कह गए।

दोपहर शर्मा जी किसी काम से भूमिनाथपुरम गए थे। बसँती आयी थी। हफ्ते भर में उसे बंबई जाना था। कमली ने उससे सुझाब माँगे। कामाक्षी की तरह लांग वाली धोती पहननी भी सीखी।

रवि घर पर नहीं था, इसलिए जी खोलकर बातें करने का अवसर हाथ लग गया। हालांकि कमली ने भारतीय रीति रिवाजों, नियमों, अनुष्ठानों के बारे में काफी जानकारी थी, पर कुछ छोटी-छोटी शकाएँ बनी रहीं।

बसँती से उनका निवारण कर लिया। एक प्रश्न बेह्द निजी था। बसँती ने उसे सविस्तार साफ-साफ समझा दिया। 'ऐसे दिनों के लिए पिछवाड़े में एक कमरा है। वहीं रहनो पड़ता है। ढेर सारी किताबें रख लेना। पढ़ती रहना। तीन दिनों की जेल समझ लो।'

कमली कामाक्षी को पूरी तरह से संतुष्ट करना चाहती थी। सँझवाती वाली घटना, फिर रवि के पिता का उसे सलाह देने की बात बसंती से उसने कुछ भी नहीं छिपाया।

'अंगर बहुत परेशानी हो, तो मेरे घर चली जाना। बाऊ जी से कह जाऊँगी।' पर कमली नहीं मानी।

'देखेंगे! मुझे लगता है, इसकी जरूरत नहीं रहेगी।' कमली ने निर्णयात्मक स्वर में कहा।