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आपेक्षिकता से पूर्व की भौतिकी

यह वैचारिक ब्रह्माण्ड हमारे अनुभवों की प्रकृति से केवल उतना ही स्वतंत्र है जिस तरह हमारे कपड़े मानव शरीर के रूप से भिन्न होते हैं। यह हमारी दिक् (समष्टि) और काल (समय) की अवधारणाओं के लिए विशेष रूप से सत्य है, जिन्हें उपयोगी स्थिति में लाने के लिए और भौतिकविदों की अपनी पूर्वधारणाओं के साथ समायोजित करने के लिए तथ्यों के आधार पर समझना पडा है।

अब हम अपनी दिक् (समष्टि) की अवधारणाओं और निर्णयों पर आते हैं। यहाँ यह आवश्यक है कि हम अपनी आनुभाविक अवधारणाओं के साथ सम्बंध का पूर्ण ध्यान रखें। मुझे लगता है कि पोंकारे (Poincaré) ने अपनी पुस्तक "ला साइंस एट एल हाइपोथीस" (La Science et l'Hypothese) में दिये गए विवरण में सत्य को स्पष्ट रूप से पहचान दी। किसी दृढ़ में हम जो परिवर्तन देखते हैं वो उसकी सरलता के कारण चिह्नित हैं और वो पिंड की यादृच्छिक गति के साथ उत्क्रमणीय हैं; पोंकारे इन्हें स्थिति में परिवर्तन कहते हैं। स्थिति में सरल परिवर्तन के साथ हम दो पिण्डों को एक दूसरे के सम्पर्क में ला सकते हैं। ज्यामिति में मूलभूत सर्वांगसमता प्रमेय स्थिति में ऐसे परिवर्तनों द्वारा नियंत्रित नियमों से सम्बंधित हैं। दिक् की अवधारणा के लिए निम्नलिखित आवश्यक प्रतीत होता है। हम पिण्डों को निकट लाकर नये पिण्ड का निर्माण कर सकते हैं; इसके बाद हम पिण्ड को बनाये रखते हैं। हम पिंड को इस तरह बनाये रखते हैं कि वो अन्य किसी पिण्ड के सम्पर्क में आता है, पिण्ड के सभी अनुवर्ती समूह (ensemble) को हम "पिण्ड के दिक्" के रूप में अभिहित (designate) कर सकते हैं। तब यह सत्य होगा कि "पिण्ड के (यादृच्छिक रूप से चुने गये) दिक्" में सभी पिण्ड होंगे। इस अर्थ में हम दिक् की अमूर्त होने की बात नहीं कर सकते लेकिन केवल उसी की बात कर सकते हैं जो "दिक् पिण्ड से सम्बद्ध है।" हमारे दैनिक जीवन में पिण्डों की सापेक्ष स्थिति के निर्धारण में पृथ्वी पटल महत्त्वपूर्ण योगदान रखता है