भजन । १७१ सुत मायन को जगदीश कहा. अघ कारन होहि हानि महा पृथिवो तुम जा नरदेह धरो. नर तारन कारन दंड भरो.8 एहि प्रेमहि कौन बखान करे. पितु पुत्र दियो दुख पाप हरे । सुत जो करना करि लीन्ह व्यथा. करि कौन सके तेहि योग्य कथा ॥ ५ १६७ एक सौ सतसठवां गीत। छन्द मरियम कुंवारी जबरयेल सतेज दर्शन पायके । परनाम सुनि दिव दूत के भइ सोच बश अकुलायके ॥ १ नहि मर्म जान्यु दूत शुभ सन्देश केहि बिधि लावही । नर मुक्तिदायक तोर सुत अति दोन बनि अव प्रावही ॥ २ जगदीश जे बर बचन ठान्यो सुत पठाउव मैं मही। सेद्ध बाक्य अपनो सत्य स्वामीनाथ बदलि दया नहीं बहु काल व्यापे शोक अरु सन्ताप पृथिवी के बिखे । जब अवधि पूरी तवकियोजिमि भविख ग्रन्थहिथेलिखे ॥ ४ दाउद नरेशक बंश, मे मरियम रही निरधन बड़ी। तेहि शुद्ध मन्या पाहि जगकरतार देह बिमल धरी अस दीन कन्या पर दया अदभुतं दिखाई.प्रभु यथा । नित प्रीति करही दीन दुखित बिनीत मनुखन पर तथा ॥ ६ ॥
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