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श्रीचन्द्रावली
शुक०― धन्य हैं, धन्य! कुल को, वरन् जगत् को अपने निर्मल प्रेम से पवित्र करनेवाली हैं।
(नेपथ्य मे वेणु का शब्द होता है)
अहा! यह वंशी का शब्द तो और भी व्रजलीला की सुधि दिलाता है। चलिए अब तो व्रज का वियोग सहा नहीं जाताअ; शीघ्र ही चलके उनका प्रेम देंखे, उस लीला के बिना देखे आँखे व्याकुल हो रही हैं।
(दोनों जाते है)
॥इती प्रेममुख नामक विप्कम्भक॥
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