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शुक० - यह तो हुआ, अब कहिए आप आते कहाँ से हैं ? नारद - इस समय तो मैं श्रीवृन्दावन से आता हुँ । शुक० - अहा ! आप धन्य हैं जो उस पवित्र भूमि से आते हैं । (पैर छूकर)
धन्य हैं उस पवित्र भूमि की रज, कहिए वहाॅ क्या-क्या देखा ?
नारद - वहाॅ पर प्रेमानन्दमयी श्रीव्रजबल्ल्भी लोगों का दर्शन करके अपने को पवित्र किया और उनकी विरहावस्था देखता बरसों वहीं भूला पडा रहा । अहा, ये श्रीगोपीजन धन्य है । इनके गुणगण कौन कह सकता है -
गोपिन की सरि कोऊ नाही । जिन तृन-मम कुल-लाज-निगड़ सब तो तोयो हरिरस माहीन॥ जिन निज बस कीने नॅदनन्दन बिहरी दै गलबाॅही । सब सन्तन के सीस रहौ इन चरन-छत्र की छाॅही ॥ ब्रज की लता पता मोहिं कीजै । गोपी-पद-पंकज-पावन की रज जामैं सिर भीजै ॥ आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै । श्रीराधे राधे मुख, यह बर मुॅहमाँग्याै हरि दीजै ॥
(प्रम-अवस्था में आते हैं और नेत्रों से आँसू बहते है)
शुक०- (अपने आँसू पोंछकर) अहा धन्य हैं आप, धन्य हैं, अभी जो मैं न सम्हामलता तो वीणा आपके हाथ से छूटके गिर पडती । क्यों न हो,
श्रीमहादेवजी की प्रीति के पात्र होकर आप एेसे प्रेमी हों इसमें आश्चर्य
नही ।
नारद-(अपने को सम्हालकर) अहा ! ये क्षण कैसे आनन्द से बीते हैं यह आपसे महात्मा की संगत का फल है ।
शुक०- कहिए, उन सब गोपियों मे प्रेम विशेष किसका है ?
नारद-विशेष किसका कहँ और न्यून किसका कहँ, एक से एक बढ़कर हैं। श्रीमती की कोई बात ही नहीं, वे तो श्रीकृष्ण ही है, लीलार्थ दो हो रही हैं; तथापि सब गोपियों में श्रीचन्द्रावलीजी के प्रेम की चर्चा आजकल ब्रज के डगर-डगर में फैली हुई है। अहा ! कैसा विलक्षण प्रेम है, यद्यपि माता- पिता, भाई-बन्धु सब निपेध करते है और उधर श्रीमतीजी का भी भय है, तथापि श्रीकृष्ण से जल में दूध की भाँति मिल रही हैं । लोकलाज, गुरुजन कोई बाधा नहिं कर सकते । किसी उपाय से श्रीकृष्ण से मिल ही रहती हैं ।