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श्रीचन्द्रावली
भरत को वाक्य—भरत-वाक्य (दे० भूमिका, ‛सक्षिप्त नाट्य-शास्त्र)।
परमारथ―परमार्थ―नाम रूपादि से परे यथार्थ तत्व। इसका ‘दूसरो की भलाई, अर्थ भी होता है।
स्वारथ―स्वार्थ―अपनी भलाई, अपना हित।
संग मेलि न सानैं―एक साथ न मिलावै।
आचारज―आचार्य्य।
वृंदाविपिन―वृदावन।
थिर होई―स्थिर हो, दृढ़ हो।
जन वल्लभी―वल्लभ संप्रदाय का अनुयायी।
जगजाल―ससार का बन्धन।
अधिकार―पहले कहा जा चुका है श्रीकृष्ण की भक्ति उसीको प्राप्त होती है जिसे अधिकार है। यह अधिकार श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मिलता है। दे० भूमिका।
रतन-दीप―रत्न-दीप। रत्न-दीप इसलिए कहा है ताकि वह सदा जगमगाता रहे, कभी बुझे नही, राग द्वेप, माया-मोह, दभ आदि की ऑधी भी उसे न बुझा सके। भरत वाक्य से भी भारतेन्दु के वल्लभ कुल के वैष्णव होने का पता चलता है।
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