लुकाय―छिपा लूँ।
जिन जाहु―मत जाओ।
किन―क्यों न।
लाहु―लाभ।
अमित―अपरिमित, बहुत अधिक।
अनुदिन―प्रतिदिन।
नाखौं―डालूँ, गिराऊँ, मिलाऊँ।
जनमन की―जन्मजन्मान्तर की।
तू तो मेरी...लीला है—पुष्टिमार्गीय सिद्धान्त के अनुसार है।
युगल के अनुग्रह...किसको है―युगल―कृष्ण और राधा। पुष्टिमार्गीय सिद्धान्त के अनुसार है। चन्द्रावली के इस विशेष सन्दर्भ में कृष्ण के अतिरिक्त राधा का अनुग्रह भी आवश्यक था, अतएव ‘युगल का अनुग्रह’ शब्दो का प्रयोग हुआ है।
मैं तो अपुने प्रेमिन...होइ वेई के नहीं―पुष्टिमार्गीय सिद्धान्त के अनुसार है। दे० भूमिका।
सुखेन―सुखपूर्वक।
स्वामिनी...सुखेन पधारौ―स्वामिनी―प्रधान महिषी राधा। नाटिका के लक्षण के अनुसार स्वामिनी की यह आज्ञा आवश्यक थी। इसके बिना श्रीकृष्ण और चन्द्रावली निस्संकोच न मिल सकते थे।
सखी, पीतम तेरो तू...नेत्र सफल करैं―पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तानुसार है। दे० भूमिका।
परिलेख―उल्लेख, वर्णन।
प्रेम की टकसाल―आदर्श प्रेम।
युगल जोड़ी―श्रीकृष्ण और चन्द्रावली।
लहौरी―प्राप्त करोरी।
जुगल रूप―श्रीकृष्ण और चन्द्रावली।
बरु―चाहे।
अघ―पाप, दुःख।
उमहौ री―उभाड़ो, उमगाओ, उत्पन्न करो।
राधा चन्द्रावली...निवहौ री―इन सब नामों का पुष्टिमार्ग में अत्यधिक महत्त्व माना गया है। इन पुण्य नामों का प्रातः उठते ही स्मरण करना चाहिए।