यारी की―प्रेम की।
त्रिभुवन की सब रति गति मति••• त्रिभुवन―स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल।
रति―प्रेम। गति―मर्यादा। मति―बुद्धि। छबि―सौन्दर्य।
केहि―किसे।
चितवति चकित मृगी सी―चितवति―देखती है। चकित मृगी सी―मृगी की भाति चकित हो।
अकुलाति लखाति ठगी सी―अकुलाति―व्याकुल होती है। लखाति ठगी सी― ठगी सी दिखाई पड़ती है, जैसे किसी ने कुछ छीन लिया हो।
तन सुधि करु―शरीर का ध्यान कर।
खगी-सी―लिप्त हुई सी, भूली हुई सी।
जकी सी―स्तब्ध सी।
मद पीया―मद पान कर लिया है।
क―अथवा।
भूलि बैखरी―बैखरी―वैग्यरी―वाक्शक्ति। वाक्शक्ति भूलकर, मूक भाव से।
मृगछौनी―मृग की बच्ची।
जले पर नोन―और उत्तेजित करना। एक तो चन्द्रावली वैसे ही विरह-पीड़ित है, उस पर संगीत और साहित्य के योग से वह और भी पीड़ित हो उठती है।
हम अपने•••अनुभव कर रहे हैं―काव्यगत प्रेम और सोन्दर्य की अपेक्षा चन्द्रावली का प्रेम और सौन्दर्य सुधारस-पान उसका निजी अनुभव है, अतएव अधिक विलक्षण है।
पत―लजा।
चबाई―निंदक।
धरिहै उलटो नाऊँ―उलटी बदनामी करेगे।
सुजाम-शिरोमनि―सुजान―चतुर, सयाना, सजन, प्रेमी। शिरोमनि―श्रेष्ठ। ‘सुजान’ से श्रीकृष्ण का तात्पर्य है।
मरमिन―मर्म जाननेवाली, रहस्य जाननेवालीं।
पटुका―वह वस्त्र जो कमर में बाँधा जाता है, फेंटा।
नाँधि―बाँध कर।
बाहर•••गर समाधि―अर्थात् बाहर-भीतर दोनों स्थानों में तुम्हें प्राप्त करूँगी। अन्तर करौंगी समाधि―तुम्हारा ध्यान करते हुए हृदय में समाधि लगा दूँँगी, अर्थात् श्रीकृष्ण को हृदय में छिपा लेगी।