लोकलाज...होय सो होय―पुष्टिमार्गीय भक्ति के अनुसार ही यह कथन है।
मुरि―मुड़ कर।
छाम―क्षीण।
कलाम―प्रतिज्ञा।
हुती―थी।
सूधी―सीधी।
साधै―इच्छा।
अनखाना―क्रुध्द होना, रिसाना।
सुभाय―स्वभाव, प्रकृति। 'अच्छा लगना' अर्थ भी हो सकता है―'भाना' से (इस प्रकार करके अर्थात् दया न लाकर क्या तुम अच्छे लगते हो)।
सात पैर―सप्तपदी―विवाह समय की सात फेरी।
कित कों ढरिगो―कहॉ चला गया।
साजत हौ―सजाते हो अर्थात् प्रदर्शित करते हो।
अनबोलिबे में नहिं छाजत हौ―अनवोलिबे में―न बोलने में। छाजना―शोभा देना।
दुरि―छिप कर।
बिरुदावली―यश, अर्थात् अपनी शरण में आए की रक्षा करते हो यह यश।
हात―हाथ। कछू हात नहीं―कुछ हाथ नहीं लगता, मतलब नहीं निकलता।
जलपान कै पूछनी जात नहीं―पानी पी कर जाति नहीं पूछनी चाहिए।
भारवौ―कहो।
औधि―अवधि।
देखि लोजौ...रहि जायेंगी―दर्शन की लालसा से आँखों का खुला रह जाना कहा गया है।
अमृत पीकर फिर छाछ कैसे पियेंगी―छाछ―मठ्टा। उत्तम वस्तु ग्रहण करने के बाद निकृष्ट वस्तु कौन ग्रहण करेगा अर्थात् तुम्हारे सामने अब कौन अच्छा लगेगा।
पेखिए का―पेखिए―देखिए। का― क्या।
संगम―संयोग, मिलन।
तुच्छन― तुच्छ सुखों को।
हरिचंद जू हीरन...लै परेखिए का―परेखना―जाँचना। हीरों का व्यवहार कर काँच को क्या जाँचे। 'अमृत पीकर फिर छाछ कैसे पियेंगी, वाला भाव है।