अथ विष्कम्भक
(आनन्द में घूमते हुए डगमगी चाल से शुकदेव जी आते हैं)
शुक०―(स्रवन-सुखद इत्यादि फिर से पढ़कर) अहा! संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है, कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त, कोई मत-मतातर के झगड़े मे मतवाला हो रहा है, एक दूसरे को दोष देता है, अपने को अच्छा समझता है, कोई संसार को ही सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है, कोई परमार्थ ही को परम पुरुषार्थ मान कर घर-बार तृण-सा छोड़ देता है। अपने-अपने रग में सब रंगे है। जिसने जो सिद्धान्त कर लिया है वहीं उसके जी मे गड़ रहा है और उमीके खंडन-मंडन में जन्म विताता है, पर वह जो परम प्रेम अमृत-मय एकांत भक्ति है, जिसके उदय होते ही अनेक प्रकार के आग्रह-स्वरूप ज्ञान-विज्ञानादिक अन्धकार नाश हो जाते हैं और जिसके चित्त में आते ही संसार का निगड़ आपसे आप खुल जाता है―वह किसी को नहीं मिली; मिले कहाँ से? सब उसके अधिकारी भी तो नहीं हैं। और भी, जो लोग धार्मिक कहाते हैं, उनका चित्त, स्वमत-स्थापन और पर-मत-निराकरण-रूप वाद-विवाद से, और जो विचारे विषयी हैं उनका अनेक प्रकार की इच्छारूपी तृष्णा से, अवसर तो पाता ही नही कि इधर झुके। (सोचकर) अहा! इम मदिरा को शिवजी ने पान किया है और कोई क्या पिएगा? जिसके प्रभाव से अर्द्धाग में बैठी पार्वती भी उनको विकार नहीं कर सकतीं, धन्य हैं, धन्य हैं, और दूसरा ऐसा कौन है। (विचारकर) नहीं-नहीं, व्रज की गोपियों ने उन्हे भी जीत लिया है। अहा! इनका कैसा विलक्षण प्रेम है कि अकथनीय और अकरणीय है; क्योंकि जहाँ माहात्म्य-ज्ञान होता है वहाँ प्रेम नहीं होता और जहाँ पूर्ण प्रीति होती है वहाँ माहात्म्य-ज्ञान नहीं होता। ये धन्य हैं कि इनमे दोनों बातें एक संग मिलती हैं, नहीं तो मेरा-सा निवृत्त मनुष्य भी रात-दिन इन्हीं लोगों का यश क्यों गाता?
(नेपथ्य में वीणा बजती है)
(आकाश की ओर देखकर और वीणा का शब्द मुनकर)
आहा! यह आकाश कैसा प्रकाशित हो रहा है और वीणा के कैसे मधुर