श्रीचन्द्रावली वेणु, वंशी-पुष्टिमार्ग मे वंशी का बहुत माहात्मय है। वंशीराव का आध्यात्मिक अर्थ है 'ब्रहानाद'।
पहिला अंक
जवनिका-दे भूमिका।
गिरिराज-गोवर्ध्द्नन पर्वत।
मुख से कहती है,चित से नहीं-बाहर कुछ और,भीतर कुछ और। दुराब।
उडती है-चित में बात छिपाकर भुलावा देती है।
चली न अपनी घाल से- अपने आचरण के अनुसार व्यवहार करना, कपटाचरण । रोग का वैध्य- प्रेम-रूपी रोग को दूर करनेवाला। ललिता का कहना है कि 'मैं ही तेरे प्रेम को सफल बनाने मे सहायक हो सकती हूँ'।
ईट-पत्थर की नहीं हूँ-ह्रदयहीन नहीं हूँ।
उघ्ररी परत-रहस्य प्रकट हो जाता है।
खगे-धँसना, छिपना।
दुराव-छिपाव।
दुरत-छिपते।
प्रेम-पगे-प्रेम-रम मे पगे हुए।
उघरे से डोलन-घूँघट से बाहर प्रकतट हो जाते हैं।
मोहनरंग रँगे-कृष्ण के रंग मे रँंगे हुए।
पहेली बुझना-छिपी हुई बात का पता लगाना।
बाँयाँ चरण निकाल तो मै भी पूजा करुँ- स्त्री का वामाँग ही पूज्य होता है। चरण-पूजा,आदर-सत्कार या महत्ता स्विकार करने का प्रतीक है। यहाँ ललिता चन्द्रावली को छिपाने की कला की श्रेष्टता पर कटाक्ष करती है।
मकपकाना-आश्चर्य-चकित होना, लजित होना, स्तब्ध होना।
रूसी जाती है-क्रुध्द हुई जाती है।
सरिडै-पूर्ण होगा।
वेदन-वेदना।
वापुरौ-बेचारा।
मुँह चिढाना- किसी की आकृति, हाव-भाव या कथन को बहुत बिगाड कर नकल करना।
निठुर-निष्टुर।
लगौडीं चितवनि-लगी हुई दृष्टि किसी पर असक्त होना।
थिरत-स्थिर होती है।