श्रीचन्द्रावली
विष्कम्भक- दे० भूमिका (सन्क्शिप्त नाट्य- शास्त्र)। अहा! सन्सार के जीवों लोगों का यश क्यों गाता - शुकदेवजी के कहने का भाव यह है कि जीव अविद्या में लिप्त होकर या तो मर्यादा मार्ग क अनुसरण करते हैं, या अपने ग्यान का अभिमान करते हैं, या विविध मतों के स्थापित करने मे आपस से झगड़ते हैं, या लौकिक आसक्ति मे पड़े रहते हैं, या फिर सन्सार के विरक्ति धारण कर परलोक-साधन करते हैं, किन्तु पुष्टिमार्गीय भक्ति के लिये यह सब व्यर्थ है। उसे जप, तप वैराग्य, नियम आदि छोदकर, प्रेम भाव धारण कर केवल श्रीकृष्ण की शरण मे जाना चाहिए जिससे लोक, देश, काल, तीर्थ आदि के दोप से वह मुक्त हो जाता है, क्योंकि स्वयम श्रीकृष्ण सब शास्त्रों के सार हैं। श्रीकृष्ण शास्त्रों के अध्ययन- अध्यापन से प्रसन्न नही होते, वे भक्त के बुध्हिशील होने से भी प्रसन्न नहीं होते। वे तो केवल प्रेम के भूखे हैं परन्तु जिसे भगवान कृपाकर अपना समझते हैं, उसीको परमात्मा की प्रपाप्ति होती है। गोपियों में श्रीकृष्ण के परम्ब्रम्हत्व-ग्यान के साथ-साथ पूर्ण प्रेम का मणि-कांचन योग था। नेम- नियम। 'नेम धर्म' से तात्पर्य विधिविहित मर्यादा मार्ग से है। मत-मतान्तर- विभिन्न धर्म। परमार्थ- मोक्श- साधन। परम प्रेम अमृत-मय एकान्त भक्ति- परम प्रेम (प्रभु-प्रेम) रूपी अमृत से पूर्ण मन की अनन्य भक्ति (रागानुगा भकति)। भगवान में एकान्त अनुरक्ति ही आनन्द- प्राप्ति क एक्मात्र साधन है। आग्रह-स्वरूप ग्यान-विग्यानादिक अन्धकार- ग्यान विग्यानादिक (शास्त्र ग्यान, ब्रम्ह-आत्मा की एकता आदि माया या अविद्या के बोध) से सम्बन्धित हठ रोपी अन्धकार। पुष्टिमार्ग के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन से प्रसन्न नहीं होते। निगढ़- बन्धन, बेड़ी। लोक और वेद के बन्धन। अधिकारि- पुष्टिमार्ग में श्रीकृष्ण की सेवा का अधिकार ही परम पुरुषार्थ है। किन्तु यह अधिकार वही पाते हैं जिनपर भगवान क अनुग्रह होता है। मदिरा को शिवजी ने पान किया है- प्रेम रूपी मदिरा का पान। शिव को विष्णु भक्त के रूप मे सदैव चित्रित किया गया है और वे एक परम भक्त माने