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श्रीचन्दावली


परमारथ स्वारथ दोउ कहँ सँँग मेलि न सानैं । जे आचारज हौइॅ धरम निज तेह पहिचानै ॥ वृन्दाबिपिन बिहार सदा सुख सों थिर होई । जन बल्लभी कहाइ भक्ति बिनु होई न कोई ॥ जगजाल छाॅड़ि अधिकार लहि कृष्णचरित सबही कहै । यह रतन-दीप हरि-प्रेम को सदा प्रकाशित जग रहै ॥ (फूल की वृष्टि होती है, बाजे बजते है, और जवनिका गिरती है)

     ॥ इति परमफलचतुर्थ अंक ॥