श्रीचन्द्रावली
वा बगीचों, पहाड़ों और मैदानों में गलबाहीं डाले फिरती हैं। दोनों परस्पर पानी बचाते हैं और रंगीन कपड़े निचोड़ कर चौगुना रंग बढ़ाते हैं। झूलते हैं, झुलाते हैं, हँसते हैं, भींगते हैनं, भिगाते हैं, गाते हैं, गवाते हैं, और गले लगते हैं, लगाते हैं।
माधुरी--- और तेरो न कोई पानी बचानेवाला, न तुझे कोई निचोड़ने वाला, फिर चौगुने की कौन कहे ड्यौढ़ा सवाया तो तेरा रंग बढ़ेहीगा नहीं।
कामिनी--- चल लुच्चिन! जाके पायें न भई बिवाई सो क्या जानै पीर पराई।
(बात करती-करती पेड़ की आड़ में चली जाती है)
माधवी-- (चन्द्रावाली से) सखी श्यामला का दर्शन कर, देख कैसी सुहावनी मालूम पड़ती है। लटें सगबगी होकर गले में लपत रहीं है। कपड़े अग में लपट गए हैं। भींगने से मुख का पान और काजल सबकी एक विचित्र शोभा हो गई है।
चंद्रा--- क्यों न हो। हमारे प्यारे की प्यारी है। मैं पास होती तो दोनों हाथों से इसकी बलैया लेती और छाती से लगाती।
का°मं°--- सखी, सचमुच आज तो इस कदंब के नीचे रंग बरस रहा है। जैसा समा बँधा है वैसी ही झूलने वाली हैं। झूलने में रंग-रंग की साड़ी की अर्ध-चंद्राकार रेखा इन्द्रधनुष की छवि दिखाती है। कोई सुख से बैठी झुले की ठण्ढी-ठण्ढी हवा खा रही है, कोई गाँती बाँधे लाँग कसे पेंग मारती है, कोई गाती है, कोई डरकर दूसरी के गले से लपट जाती है, कोई उतरने को अनेक सौगन्द देती है, पर दूसरी उसको चिढ़ाने को झूला और भी झोंके से झुला देती है।
माधवी--- हिंडोरा ही नहीं झूलता। ह्रदय में प्रीतम को झुलाने के मनोरथ और नैनों में पिया की मूर्ति भी झूल रही है। सखी, आज साँवला ही की मेंहदी और चूनरी पर तो रंग है। देख बिजुली की चमक में उसकी मुखछवि कैसी सुंदर चमक उठती है और वैसे पवन भी बार-बार घूँघट उलट देता है। देख---
हूलति हिय में प्रानप्यारे के बिरह-सूल फूलति उमंगभरी झूलति हिंडोरे पै। गावति रिझावति हँसावति सबन 'हरि- चंद' चाव चौगुनो बढ़ाइ घन घोरे पै॥ वारि वारि डारौं प्रान हँसनि मुरनि बत- रान मुँह पान कजरारे घ्ग ढोरे पै।