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श्रीचन्द्रावली हे सारस तुम नीके बिछुरन बेदन जानौ। तौ क्यो पीतम साें नहि मेरी दसा बखानौ। हे कोकिल-कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी। क्यो नहि बोलहु तही जाय जहँ हरि बडभागी॥ हे पपिहा तुम पिउ पिउ पिय पिय रटत सदाई। आजहू क्यो नहि रटि रटि के पिय लेहु बुलाई॥ अहे भानु तुम तो घर घर मे किरिन प्रकासो। क्यो नाहि पियाहि मिला हमारो दुख तम नासो॥
हाय! कोउ नहि उत्तर दत भए सबही निरमोही। प्रानपियारे अब बोलो कहा ग्वोजो तोही॥ (चन्द्रामा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते है) (स्मरण करके) हाय! मै एसी भूली हुई थी कि रात को दिन बतलाती थी,अरे मै किसको ढुँढती थी?हा!मेरी इस सुखता पर उन तीनो सखियो ने क्या कहा होगा। अरे यह तो चन्द्रमा था जो बदली की ओट मे छिप गया। हा! यह हत्यारिन बरपा रितु है,मै तो भुल ही गई थी। इस अँधेरे मे मार्ग तो दिखाता ही नही; चलूँगी कहा और घर कैसे पहुँचुगी? प्यारे देखो,जो-जो तुम्हारे मिलने मे सुहावने जान पड्ते थे वही अब भयावने हो गए। हा! जो बन आॅखो से देखने मे कैसे भला दिखाता था वही अब कैसा भयकर दिखाई पडता है। देखो सब कुछ है एक तुम्ही ही नहि हो।(नेत्रो से आॅसू गिरते है) प्यारे! छोड के कहॉं चले गए? नाथ?आँखे बहुत प्यासी हो रही है इनको रुप-सुधा कब पिलाओगे?प्यारे!बेनी की लट बँध गई है इन्हे कब सुलझाओगे?(रोती है)नाथ, इन आॅसुओ को तुम्हारे बिना और कोई पोंछनेवाला भी नही है। ह!यह गत तो अनाथ की भी नही होती।अरे बिधिना!मुझे कौन सा सुख दिया था जिसके बदले इतना दुख देता है,सुख का तो मै नाम सुनके चौंक उटती थी और धीरज धरके कहती थी कि कमी तो दिन फिरेगे सो अच्छे दिन फिरे! प्यारे!बस बहुत भई अब नही सही जाती।मिलना हो तो जिते जी मिल जिते जी मिल जाओ।हाय!जो भर आँखो देख भी लिया होता तो जी का उमाह निकल गया होता। मिलना दूर रहे ,मै तो मुुॅह देखने को तरसती थी,कभी सपने मे भी गले न लगाया,जब सपने मे देखा तभी घबरा कर चौंक उठी।हाय! इन घरवालो और बाहरवालो के पिछे कभी उनसे रो रोकर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर जाता । लो घरवालो और बाहरवालो! ब्र्ज को स्म्हालो