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श्रीचन्द्रावली
आओ मेरे मोहन प्यारे झूठे। अपनी टारि प्रतिज्ञा कपटी उलटे हम साें रूठे॥
मति परसौ तन रँगे और के रंग अधर तुव जूठे। ताहू पै तनिकौ नहि लाजत निरलज अहो अनूठे॥ प्र प्यारे बताओ तो तुम्हारे बिना रात क्यो इतनी बढ़ जाती है?
काम कछू नहि यासो हमै, सुख साें जहॉं चाहिए रैन बिताइए।
पै जो करै बिनती 'हरिचन्द जू'
उत्तर ताको कृपा कै सुनाए॥
एक मतो उनसे क्यो कियो तुम
सोऊ न आबै जो आप न आइए।
रुसिबे सों पिय प्यारे तिहारे
दिवाकर रुसत है क्यो बताइए॥
जाओ जाओ मै नही बोलती।(एक वृक्ष की आड मे दोडन जाती है)
तीनो-भई यह तो बावरी सी डोलै,चलो,हम सब वृक्ष की छाया मे बैठें। क्तीनो बैठ जाती है)
चंद्रा-(घबडाई हुई आतो है,अचल,केश इत्यादि खुल जाते है) कहॉं गया? बोल! उलटा रुसना,भला अपराध मैने किया कि तुमने? अच्छा मैने किया सही,क्षमा करो,आओ, प्रगट हो, मुँह दिखाओ। भई,बहुत,भई, गुदगुदाना वहॉ तक जहॉ तक रुलाई
न आबै।(कुछ सोचकर)हा!भगवान किसी की कनौडी न करै, देखो मुझको इसकी कैसी बाते सहनी पडतीइ है;आप ही नही भी आता उलटा आप ही रुसता है,पर क्या करु अब तो फँस गई;अच्छा यो ही सही। ( 'अहो अहो बन के रुख' इत्यादि गाती हुई वृक्षों से पूछती है) हाय! कोइ नही बतलाता।अरे,मेरे नित के साथियो,कुछ तो सहाय करो।
अरे पौन सुख-भौन सबै थल गोन तुम्हारो। क्यो न कहौ राधिकारौन सों मौन निवारो॥ अहे भँवर तुम श्याम रंग मोहन ब्रत-धारी॥ क्यो न कहौ वा निठुर श्याम सों द्सा हमारी अहे हँस तुम राबस सरवर की सोभा॥ क्यो न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभा॥