श्रीचन्द्रावली
'हरिचन्द' ताप सब जिय को नसा चित्त
आनँद बढ़ाइ भाइ अति छकि सों छयो॥
ग्वाल-उडुगन बीच बेनु को बजाई सुधा-
रस बरखाइ मान कमल लजा देयो।
गोरज-समूह घन-पटल उघारि बह
गोप-कुल-कुमुद-निसाकर उदै भयो॥
चलो चलो उधर चलो(उधर दौड़ती है) बन- (हाथ पकडकर) अरी बावरी भई है,चन्द्रमा निकस्यो है कै वह बन सों आबै है? चन्द्रा-(घबराकर) का सूरज निकस्यो? भोर भयो!हाय!हाय!हाय! या गरमी मे या दुष्ट सूरज की तपन कैसे सही जायगी।अरे भोर,हाय भोर भयो! सब रात ऐसे ही बीत गई!हाय फेर वही घर के व्योहार चलेगे,फेर वही नहानो,वही खानो,बेई बाते हाय!
केहि पाप सों पापी न प्रान चलै, अटके कित कोन बिचार लयो।
नहि जानि परै 'हरिचन्द' कछू
बिधि ने हम सों हठ कोन ठयो॥
निसि आजहू की गई हाय बिहाय
पिया बिनु कैसे न जीव गयो।
हत-भागिनी आँखिन को नित के
दुख देखिबे को फिर भोर भयो॥
तो चलो घर चले। हाय!हाय!मॉं सों कोन बहाना कुरुँगी,क्योकि वह जात ही पूछैगी कि सब रात अकेली बन मै कहा करती रही।(कुछ ठहर कर) पत प्यारे!भला यह बताओ कि तुम आज कि रात कहॉं रहे? क्यो देखो तुम हमसे झूठ बोले न! बडे झूठे हो,हा! अपनो से तो झूठ मत बोला करो, आओ आओ अब तो आओ ।
आओ मेरे झूठन के सिरताज। छल के रुप कपट की मूरत मिध्यावाद-जहाज॥
क्यो परतिज्ञा करी रहो जो ऐसो उलटो काज। पहिले तो अपनाइ न आवत तजिबे मे अब लाज॥ चलो दूर ह्टो बडे झूठे हो।