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अपुनी कहत सुनत नहिं मेरी कोहि समुझाऊँ सोय ॥ लोक-लाज कुल की मरजादा दीनी है सब रवोय । 'हरीचंद' एेसेहि निबहैगी होनो होय सो होय ॥
परन्तु प्यारे, तुम तो सुननेवामे हो ? यह आश्चर्य है कि तुमहारे होते हमारी यह गति हो । प्यारे ! जिनको नाथ नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं । (नेत्रो मे आँसू गिरते हैं) जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों?
पहिले मुसुकाइ लजाइ कुछू क्यौं चतै मुरि मो तन छाम कियों । पुनि नैन लगाइ बढाइकै प्रीति निबाहन को क्यौं कलाम कियो ॥ 'हरिचन्द' भए निरमोही इतै निज नेह को यों परिनाम कियो। मन माहिं जो तोरन ही की हुती, अपनाइकै क्यों बदनाम कियो ॥
प्यारे, तुम बडे निरमोही हो । हा ! तुम्हे मोह भी नहीं आता ? (आँख में आँसू भरकर) प्यारे ! इतना तो वे नहीं साताते जो एहिले मुख देते हैं; तो तुम किस नाते इतना सताते हो? क्योंकि -
जिय सूधी चितौन की साधै रही, सदा बातन मैं अनरवाय रहे । हँसिकै 'हरिचन्द' न बोले कभूँ , जय दूरहि सों ललचाय रहे ॥ नाहिं नेकु दया उर आवत है, करिके कहा ऐसे सुभाय रहे । सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले, जिहिके बदले यों सताय रहे ॥
हा ! क्या तुमहें लाज भी नहीं आता ? लोग तो सात पैर संग चलते हैं उसका जन्म भर निबाह करते हैं और तुमके नित्य की प्रीति का निबाह नहीं है ! नहीं नहीं तुम्हारा तो ऐसा सुभाव नहीं था, यह नई बात है; यह बात नई है या तुम आप नये हो गये हो? भला कुछ तो लाज करो ।
कित कों ढरिगो वह प्यार सबै,क्यों रुखाई नई यह साजत हौ।
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