(जवनिका उठी)
स्थान -श्रीवृद्धावन ,गिरिराज दूर सा दहकता है
(श्रीचंद्रावली और ललिता आती है)ललिता―प्यारी, व्यर्थ इतना शोच क्यों करती है?
चंद्रा०― नहीं सखी! मुझे शोच किस बात का है।
ललिता― ठीक है, ऐसी ही तो हम मूर्ख हैं कि इतना भी नही समझती।
चंद्रा०―नहीं सखी! मैं साच कहती हूँँ, मुझे कोई शोच नही।
ललिता―बलिहारी सखी! एक तू ही तो चतुर है, हम सब तो निरी मूर्ख है?
चंद्रा०― नहीं सखी! जो कुछ शोच होता तो मै तुझमे कहती न। तुझसे ऐसी कौन बात है जो छिपाती?
ललिता― इतना ही तो कसर है, जो तू मुझे अपनी प्यारी सखी समझती तो क्यों छिपाती?
चंद्रा०―चल मुझे दुख न दे, भला मेरी प्यारी सखी तू न होगी तो और कौन होगी?
ललिता― पर यह बात मुख से कहती है, चित्त से नहीं।
चंद्रा०―क्यों?
ललिता―जो चित्त से कहती तो फिर मुझसे क्यों छिपाती?
चंद्रा०―नहीं सखी! वह केवल तेरा झूठा सन्देह है।
ललिता―सखी! मै भी इसी ब्रज मे रहती हूँ और सब के रंग-ढंग देखती ही हूँ। तू मुझमे इतना क्यों उड़ती है? क्या तू समझती है कि मैं यह भेद किसी से कह दूँगी? ऐसा कभी न समझना। सखी, तू तो मेरी प्राण है, मैं तेरा भेद किससे कहने जाऊँगी?
चंद्रा०― सखी! भगवान् न केर कि किसी को किसी बात का सन्देह पड़ जाय; जिसको जो सन्देह पड़ जाता है वह फिर कठिनता से मिटता है।
ललिता― अच्छा! तू सौगन्द खा।
चंद्रा०― हाँ सखी! तेरी सौगन्द।
ललिता― क्या मेरी सौगन्द?