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आत्म-कथा : भाग १


नुकसान न हुआ- कुछ फायदा ही हुआ है। बोलनेके संकोचसे पहले तो मुझे दुःख होता था; परंतु अब सुख होता है। बड़ा लाभ तो यह हुआ कि मैंने शब्दोंकी किफायत-शारी सीखी। अपने विचारोंको काबूमें रखनेकी आदत सहज ही हो गई। अपनेको मैं यह प्रमाण-पत्र आसानीसे दे सकता हूं कि मेरी जबान अथवा कलमसे बिना विचारे अथवा बिना तौले शायद ही कोई शब्द निकलता हो। मुझे याद नहीं पड़ता कि अपने भााषण या लेखके किसी अंशके लिए शरमिंदा होने या पछतानेकी आवश्यकता मुझे कभी हुई हो। इसके बदौलत अनेक खतरोंसे मैं बच गया और बहुतेरा समय भी बच गया, यह लाभ अलग है।

अनुभवने यह भी बताया है कि सत्यके पुजारीको मौनका अवलंबन करना उचित है। जान-अनजानमें मनुष्य बहुत-बार अत्युक्ति करता है, अथवा कहने योग्य बातको छिपाता है, या दूसरी तरहसे कहता हैं। ऐसे संकटोंसे बचने के लिए भी अल्पभाषी होना आवश्यक हैं। थोड़ा बोलनेवाला बिना विचारे नहीं बोलता; वह अपने हरेक शब्दको तौलेगा। बहुत बार मनुष्य बोलने लिए अधीर हो जाता है। 'मैं भी बोलना चाहता हूं' ऐसी चिट किस सभापतिको न मिली होगी? फिर दिया हुआ समय भी उन्हें काफी नहीं होता, और बोलनेकी इजाजत चाहते हैं, एवं फिर भी बिना इजाजतके बोलते रहते हैं। इन सबके इतने बोलने से संसारको लाभ होता हुआ तो शायद ही दिखाई देता है। हां, यह अलबत्ता हम स्पष्ट देख सकते हैं कि इतना समय व्यर्थ जा रहा है। इसीलिए यद्यपि आरंभमें मेरा झेंपूपन मुझे अखरता था; पर आज उसका स्मरण मुझे आनंद देता है यह झेंपूपन मेरी ढाल था। उससे मेरे विचारोंको परिपक्व होनेका अवसर मिला है। सत्यकी आराधनामें उससे मुझे सहायता मिली।

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असत्य-रूपी जहर

चालीस साल पहले विलायत जानेवालोंकी संख्या अबसे कम थी। उनमें ऐसा रिवाज पड़ गया था कि खुद विवाहित होते हुए भी अपनेको अविवाहित बताते। वहां हाईस्कूल अथवा कालेजमें पढ़नेवाले सब अविवाहित होते हैं।