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आत्म-कथा : भाग १


अनादर करनेवाले मनुष्यके लिए भी मंडलमें स्थान हो सकता है।

यद्यपि समितिमें और लोग भी मुझ जैसे विचार रखते थे, परंतु इस बार मुझे अपने विचार प्रदर्शित करने की भीतर-ही-भीतर तीव्र प्रेरणा हो रही थी। मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि यह हो कैसे? बोलनेकी मेरी हिम्मत नहीं थी। इसलिए मैंने अपने विचार लिखकर अध्यक्षको दे देनेका निश्चय किया। मैं अपना वक्तव्य लिखकर ले गया। जहांतक मुझे याद है, उस समय लेखको पढ़ सुनानेका भी साहस मुझे न हुआ। अध्यक्षने दूसरे सदस्यसे उसे पढ़वाया। अंतको डा॰ एलिन्सनका पक्ष हारा। अर्थात् इस तरहके इस पहले युद्धमें मैं हारनेवालोंकी तरफ था। परंतु मुझे इस बातसे अपने दिलमें पूरा संतोष था कि उनका पक्ष था सच्चा। मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि उसके बाद मैंने समितिसे इस्तीफा दे दिया था।

मेरी यह झेंप विलायतमें अंततक कायम रही। किसीसे यदि मिलने जाता और वहां पांच-सात आदमी इकट्ठे हो जाते, तो वहां मेरी जबान न खुलती।

एक बार मैं वेंटनर गया। मजूमदार भी साथ थे। वहां एक अन्नाहारी घर था, उसमें हम दोनों रहते। 'एथिक्स आव डायट' के लेखक इसी बंदरमें रहते थे। हम उनसे मिले। यहां अन्नाहारको उत्तेजन देनेके लिए एक सभा हुई। उसमें हम दोनोंको बोलनेके लिए कहा गया। दोनोंने 'हां' कर लिया। मैंने यह जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़नेमें वहां कोई आपत्ति न थी। मैं देखता था कि अपने विचारोंको सिलसिलेवार और थोडे़में प्रकट करनेके लिए कितने ही लोग लिखित भाषण पढ़ते थे। मैंने अपना व्याख्यान लिख लिया। बोलनेकी हिम्मत नहीं थी, पर जब पढ़ने खड़ा हुआ तो बिलकुल न पढ़ सका। आंखोंके सामने अंधेरा छा गया और हाथ-पैर कांपने लगे। भाषण मुश्किलसे फुलस्केपका एक पन्ना रहा होगा। उसे मजूमदारने पढ़ सुनाया। मजूमदारका भाषण तो बढ़िया हुआ, श्रोतागण करतल-ध्वनिसे उनके वचनोंका स्वागत करते जाते थे। इससे मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई और अपने बोलनेकी अक्षमतापर बड़ा दुःख हुआ।

विलायतमें सार्वजनिक रूपमें बोलनेका अंतिम प्रयत्न मुझे तब करना पड़ा, जबकि विलायत छोड़नेका अवसर आया, परंतु उनमें मेरी बुरी तरह फजीहत