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आत्म-कथा : भाग १


एक कोठरीमें रहता था, और लोकार्टकी सस्ती कोकोकी दूकानमें दो पेनीका कोको और रोटी खाकर गुजारा करता था। उसकी प्रतिस्पर्धा करनेकी तो मेरी हिम्मत न हुई; पर इतना जरूर समझा कि मैं दोकी जगह एक ही कमरे से काम चला सकता हूं और आधी रसोई हाथसे भी पका सकता हूं। ऐसा करनेपर ४ या ५ पौंड मासिकपर रह सकता था। सादी रहन-सहन संबंधी पुस्तकें भी पढ़ी थीं। दो कमरे छोड़कर ८ शिलिंग प्रति सप्ताहका एक कमरा किराये पर लिया। एक स्टोव खरीदा और सुबह हाथसे पकाने लगा। २० मिनटसे अधिक पकानेमें नहीं लगता था। ओट-मीलकी लपसी और कोकोके लिए पानी उबालने में कितना समय जा सकता था? दोपहरको बाहर कहीं खा लिया करता था और शामको फिर कोको तैयार करके रोटीके साथ खा लिया करता था। इस तरह मैं रोज एकसे सवा शिलिंग में भोजन करने लगा। मेरा यह समय अधिक-से-अधिक पढ़ाईका था। जीवन सादा हो जानेसे समय ज्यादा बचने लगा। दुबारा परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुआ।

पाठक यह न समझें कि सादगीसे जीवन नीरस हो गया हो। उलटा इन परिवर्त्तनोंसे मेरी आंतरिक और बाह्य स्थितिमें एकता पैदा हुई। कौटुंबिक स्थितिके साथ मेरी रहन-सहन का मेल मिला। जीवन अधिक सारमय बना। मेरे आत्मानंदका पार न रहा।

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भोजनके प्रयोग

जैसे-जैसे मैं जीवनके विषयमें गहरा विचार करता गया तैसे-तैसे बाहरी और भीतरी आचारमें परिवर्त्तन करनेकी आवश्यकता मालूम होती गई। जिस गतिसे रहन-सहनमें अथवा खर्च-वर्चमें परिवर्त्तन प्रारंभ हुआ, उसी गतिसे अथवा उससे भी अधिक वेगसे भोजनमें परिवर्त्तन प्रारंभ हुआ। अन्नाहार-विषयकी अंग्रेजी पुस्तकोंमें मैंने देखा कि लेखकोंने बड़ी छान-बीनके साथ विचार किया है। अन्नाहार पर उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यककी दृष्टिसे विचार किया था। नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह दिखाया कि मनुष्यको जो सत्ता पशु-पक्षीपर प्राप्त हुई है वह उनको मार कर खानेके लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षाके