४६० आत्म-कथा : भाग २ उन्होनें कहा-- “ जबतक आप दूध न लेंगे तबतक आपका शरीर नहीं पनपेगा । शरीर की पुष्टि के लिए तो आपको दूध लेना चाहिए और लोहे व संखिये की पिचकारी (इंजेक्शन) लेनी चाहिए । यदि आप इतना करें तो में आपका शरीर फिर से पुष्ट करने की 'गैरंटी' लेता हूं ।” “ आप पिचकारी भले ही दें, लेकिन मैं दूध नहीं लूंगा । ” मैंने जवाब दिया । “ आपकी दूध की प्रतिज्ञा क्या है ?” डाक्टर ने पूछा । “गाय-भैंस के फूका लगाकर दूध निकालने की क्रिया की जाती है। यह जानने पर मुझे दूध के प्रति तिरस्कार हो आया, और यह तो मैं सदा मानता ही था कि वह मनुष्य की खूराक नहीं है, इसलिए मैंने दूध छोड़ दिया है ।” मैंने कहा । “ तब तो बकरी का दूध लिया जा सकता है । ” कस्तूरबाई, जो मेरी खाट के पास ही खड़ी थीं, बोल उठीं ।
“ बकरी का दूध लें तो मेरा काम चल जायगा । ” डाक्टर दलाल बीच में ही बोल उठे ।
मैं झुका । सत्याग्रह की लड़ाई के मोह ने मुझमें जीवन का लोभ पैदा कर दिया था और मैंने प्रतिज्ञा के अक्षरों के पालन से संतोष मानकर उसकी आत्माका हनन किया । दूध की प्रतिज्ञा लेते समय यद्यपि मेरी दृष्टि के सामने गाय-भैंस का ही विचार था, फिर भी मेरी प्रतिज्ञा दूध मात्र के लिए समझी जानी चाहिए, और जबतक मैं पशु के दूध-मात्र को मनुष्य की खूराक के लिए निषिद्ध मानता हूं तबतक मुझे उसे लेने का अधिकार नहीं है । यह जानते हुए भी बकरी का दूध लेने के लिए मैं तैयार हो गया । इस तरह सत्यके एक पुजारी ने सत्याग्रह की लड़ाई के लिए जीवित रहने की इच्छा रखकर अपने सत्य को धब्बा लगाया । मेरे इस कार्य की वेदना अबतक नहीं मिटी है और बकरी का दूध छोड़ने की धुन अब भी लगी ही रहती है । बकरी का दूध पीते वक्त रोज में कष्ट अनुभव करता हूं । परंतु सेवा करने का महासूक्ष्म मोह जो मेरे पीछे लगा है, मुझे छोड़ नहीं रहा है। अहिंसा की दृष्टि से खूराक के अपने प्रयोग मुझे बड़े प्रिय हैं। उनमें मुझे आनंद आता है और यही मेरा विनोद भी है । परंतु बकरी का दूध मुझे इस