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४४२ आत्म-कथा : भाग ५ यह है कि त्र्प्रगर खुशहाल लोग दे दें तो जो असमर्थ हैं वे घबराहटमें पड़कर त्र्प्रपनी चाहे जो वस्तु बेचकर या कर्ज करके लगान चुकावेंगे और दु:ख भोगेंगे । हम मानते हैं कि ऐसी हालतमें गरीबोंका बचाव करना समर्थोंका धर्म है ।” इस लड़ाईके वर्णनके लिए मैं त्र्प्रधिक प्रकरण नहीं दे सकता । इसलिए कितने ही मीठे संस्मरण छोड़ देने पड़ेंगे । जो इस महत्त्वपूर्ण लड़ाईका विशेष हाल जानना चाहें, उन्हें श्री शंकरलाल परीखका लिखा 'खेड़ाकी लड़ाईका सविस्तर और प्रामाणिक इतिहास' पढ़ जानेकी मेरी सलाह है ।' २४ 'प्याज-चोर' चंपारन हिंदुस्तानके एक ऐसे कोनेमें पड़ा था त्र्प्रौर वहांकी लड़ाईको अखबारोंसे इस तरह अलग रक्खा जा सका था कि वहां बाहरसे देखनेवाले नहीं त्र्प्राते थे । परंतु खेड़ाकी लड़ाईकी खबर अखबारोंमें छप चुकी थी । गुजरातियोंकी इस नई चीजमें खूब दिलचस्पी हो रही थी । वे धन लुटानेको तैयार थे । यह बात तुरंत ही उनकी समझमें नहीं त्र्प्राती थी कि सत्याग्रहकी लड़ाई धनसे नहीं चल सकती, उसे धन की जरूरत कम-से-कम रहती है । मना करनेपर भी बंबई-के सेठोंने जरूरतसे अधिक धन दिया था और लड़ाई के त्र्प्रंतमें उसमेंसे कुछ रकम बची भी थी । दूसरी त्र्प्रौर रात्याग्रही सेना को भी सादगीका नया पाठ सीखना बाकी था । यह तो नहीं कह सकते कि उन्होंने पूरा पाठ सीख लिया था; किंतु हां, त्र्प्रपने रहन-सहनमें उन्होंने बहुत कुछ-सुधार जरूर कर लिया था । पाटीदारोंके लिए भी इस प्रकारकी लड़ाई नई ही थी । गांव-गांवमें घूमकर उसका रहस्य समझाना पड़ता था । यह समझाकर लोगोंका भय दूर करना मुख्य काम था कि सरकारी अफसर प्रजाके मालिक नहीं किंतु नौकर हैं, उसके पैसेसे तनख्वाह पाने वाले हैं त्र्प्रौर निर्भय बनते हुए भी उन्हें विनयके पालन 'यह पुस्तक गुजराती में है ।--अनु०