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४३८ अात्म-कथा : भाग ५

अनसूयाबहनकी आंखोसे आंसू निकल पड़े । मजदूर बोल उठे-- "आप नहीं, हम उपवास करेंगे । आपको उपवास नहीं करने देंगे । हमें माफ कीजिए । हम अपनी टेकपर अड़े रहेंगे।”

       मैंने कहा, “ तुम्हारे उपवास करनेकी कोई जरूरत नहीं है । तुम अपनी प्रतिज्ञाका ही पालन करो तो बस है । हमारे पास द्रव्य नहीं है । मजदूरोंको भिक्षान्न खिलाकर हमें हड़ताल नहीं करनी है । तुम कहीं कुछ मजदूरी करके अपना पेट भरने लायक कमा लो तो, चाहे हड़ताल कितनी ही लंबी क्यों न हो, तुम निश्चित रह सकते हो । और मेरा उपवास तो कुछ-न-कुछ फैसलेके पहले छूटनेवाला नहीं है । ”
       वल्लभभाई मजदूरोंके लिए म्युनिसिपैलिटीमें काम ढूंढते थे; मगर वहांपर कुछ मिलने लायक नहीं था । आश्रमके बुनाई-घरमें बालू भरनी थी । मगनलालने सुझाया कि उसमें बहुतसे मजदूरोंको काम दिया जा सकता है । मजदूर काम करनेको तैयार हुए । अनसूया बहनने पहली टोकरी उठाई और नदीमेंसे बालूकी टोकरियां उठाकर लानेवाले मजदूरोंका ठठ लग गया । यह दृश्य देखने लायक था । मजदूरोंमें नया जोर आया; उन्हें पैसा चुकानेवाले चुकाते-चुकाते थक जाते थे ।                            
       इस उपवासमें एक दोष था । मैं यह लिख चुका हूं कि मिल-मालिकोंके साथ मेरा मीठा संबंध था । इसलिए यह उपवास उन्हें स्पर्श किये बिना रह नहीं सकता था । मैं जानता था कि बतौर सत्याग्रहीके उनके विरुद्ध में उपवास नहीं कर सकता । उनके ऊपर जो-कुछ असर पड़े, वह मजदूरोंकी हड़तालका ही पड़ना चाहिए । मेरा प्रायश्चित्त उनके दोषके लिए न था; किंतु मजदूरोंके दोषके लिए था । में मजदूरोंका प्रतिनिधि था, इसलिए इनके दोषसे दोषित होता था । मालिकोंसे तो मै सिर्फ विनय ही कर सकता था । उनके विरुद्ध उपवास करना तो बलात्क्रार गिना जायगा । तो भी मैं जानता था कि मेरे उपवासका असर उनपर पड़े बिना नहीं रह सकता । पड़ा भी सही; किंतु मैं अपनेको रोक नहीं सकता था । मैंने ऐसा दोषमय उपवास करनेका अपना धर्म प्रत्यक्ष देखा । 
       मालिकोंको मैने समझाया, “ मेरे उपवाससे आपको अपना मार्ग जरा भी छोड़नेकी जरूरत नहीं हैं । ” उन्होंने मुझे कडुए-मीठे ताने भी मारे । उन्हें