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अध्याय १३ : बिहारकी सरलता ४१३ बाहरके पाखानेकी तरफ उंगली बताई । मेरे लिए इसमें असमंजसकी या रोषकी कोई बात न थीं; क्योंकि ऐसे अनुभवोंसे मैं पक्का हो गया था। नौकर तो बेचारा अपने धर्मका पालन कर रहा था, और राजेंद्रबाबूके प्रति अपना फर्ज अदा करता था। इन मजेदार अनुभवोंसे राजकुमार शुक्ल प्रति जहां एक ओर मेरा मान बढ़ा, तहां उनके संबंध में मेरा ज्ञान भी बढ़ा। अब पटनासे लगाम मैंने अपने हाथमें ले ली । बिहारकी सरलता मौलाना मजहरुलहक और मैं एक साथ लंदनमें पढ़ते थे। उसके बाद हम बंबई १९१५की कांग्रेसमें मिले थे। उस साल वह मुसलिमलीगके सभापति थे। उन्होंने पुरानी पहचान निकालकर जब कभी मैं पटना आऊं तो उनके यहां ठहरनेका निमंत्रण दिया था। इस निमंत्रणके आधारपर मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी और अपने कामका परिचय भी दिया। वह तुरंत अपनी मोटर लेकर आये और मुझे अपने यहां चलनेकी इसरार करने लगे। इसके लिए मैंने उनको धन्यवाद दिया और कहा कि “ मुझे अपने जाने के स्थानपर पहली ट्रेनसे रवाना कर दीजिए। रेलवे गाइडसे मुकामका मुझे कुछ पता नहीं लग सकता।' उन्होंने राजकुमार इक्लके साथ बात की और कहा कि पहले मुजफ्फरपुर जाना चाहिए। उसी दिन शामको मुजफ्फरपुरकी गाड़ी जाती थी। उसमें उन्होंने मुझे रवाना कर दिया । मुजफ्फरपुरमें उस समय प्राचार्य कृपलानी भी रहते थे। उन्हें मैं पहचानता था । जब मैं हैदराबाद गया था तब उनके महात्यागकी, उनके जीवनकी और उनके द्रव्यसे चलनेवाले प्रश्रमकी बात डॉक्टर चोइथरामके मुंखसे सुनी थी । वह मुजफ्फरपुर कॉलेजमें प्रोफेसर थे; पर उस समय वहांसे मुक्त हो। बैठे थे। मैंने उन्हें तार किया । ट्रेन मुजफ्फरपुर अधीरातको पहुंचती थी । वह अपने शिष्य-मंडल को लेकर स्टेशन आ पहुंचे थे; परंतु उनके धर-बार कुछ न था । वह अध्यापक मलकानीके यहां रहते थे; मुझे उनके यहां ले गये । मलकानी भी वहांके कॉलेजमें प्रोफेसर थे और उस जमानेमें सरकारी कॉलेजके प्रोफेसर