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४०६ आत्म-कथा : भाग ५ सकला है। सर लल्लूभाईकी राय थी कि ‘तुरंत' शब्द रक्खा जाय। उन्होंने कहा कि ‘इकत्तीस जुलाई से तो तुरंत' शब्दमें अधिक जल्दीका भाव आता है । इसपर मैंने यह समझानेकी कोशिश की कि लोग तुरंत' शब्दका तात्पर्य न समझ सकेंगे । लोगोंसे यदि कुछ काम लेना हो तो उनके सामने निश्चयात्मक शब्द रखना चाहिए। तुरंत' का अर्थ सब अपनी मर्जीके अनुसार कर सकते हैं। सरकार एक कर सकती है, लोग दूसरा कर सकते हैं। परंतु इकत्तीस जुलाई का अर्थ सब एक ही करेंगे और उस तारीख तक यदि कोई फैसला न हो तो हम यह विचार कर सकते हैं कि अब हमें क्या कार्रवाई करनी चाहिए। यह दलील डा० रीडको तुरंत जंच गई। अंतको सर लल्लूभाईको भी, 'इकत्तीस जुलाई रुची और प्रस्तावमें वही तारीख रक्खी गई। सभामें यह प्रस्ताव रखा गया और सब जगह इकत्तीस जुलाई की मर्यादा घोषित हुई । बंबईसे श्रीमती जायजी पेटिटकी अथक मिहनतसे स्त्रियोंका एक प्रतिनिधिमंडल वायसरायके पास गया। उसमें लेडी ताता, स्वर्गीय दिलशाह बेगम वगैरा थौं । सत्य बहनोंके काम तो मुझे इस समय याद नहीं है; परंतु इस प्रतिनिधिमंडलका असर बहुत अच्छा हुआ और वायसराय साहबने उसका आशा-वर्धक उत्तर दिया था। करांची, कलकत्ता वगैरा जगह भी मैं हो आया था। सब जगह अच्छी सभायें हुई और जगह-जगह लोगों में खूब उत्साह था । जब मैंने इस कामको उठाया तब ऐसी सभायें होने की और इतनी संख्यामें लोगोंके आनेकी आशा मैंने नहीं की थी । | इस समय मैं अकेला ही सफर करता था, इससे अलौकिक अनुभव प्राप्त होता था। खुफिया पुलिस तो पीछे लगी ही रहती थी; पर इनके साथ झगड़नेकी मुझे कोई जरूरत नहीं थी। मेरे पास कुछ भी छिपी बात नहीं थी। इसलिए वे न मुझे सताते और न मैं उन्हें सताता था । सौभाग्यसे उस समय मुझपर महात्मा' की छाप नहीं लगी थी, हालांकि जहां लोग मुझे पहचान लेते वहां इस नामका घोष होने लगता था । एक दफा रेलमें जाते हुए बहुतसे स्टेशनोंपर खुफिया मेरा टिकट देखने आते और नंबर वगैरा लेते । मैं तो वे जो सवाल पूछते. जवाब तुरंत दे देता। इससे साथी मुसाफिरोंने समझा कि मैं कोई सीधासादा साधु या फकीर हूं । जब दो-चार स्टेशनपर खुफिया आये तो वे मुसाफ़िर