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अध्याय ११ : गिरमिट-प्र ४०७ पर अब मैंने यह देखा कि लोगोंमें इतनी जाग्रति आगई है कि अब यह बंद की जा सकती है, इसलिए मैं कितने ही नेताओंसे इस विषयमें मिला, कुछ अखबारों इस संबंध लिखा और मैंने देखा कि लोकमत इस प्रथाका उच्छेद कर देनेके पक्षमें था। मेरे मन में प्रश्न उठा कि क्या इसमें सत्याग्रह का कुछ उपयोग हो सकता है ? मुझे उसके उपयोगके विषय में तो कुछ संदेह नहीं था; परंतु यह बात मुझे नहीं दिखाई पड़ती थी कि उपयोग किया कैसे जाय । इस बीच वाइसरायने ‘समय आनेपर' इन शब्दोंका : अर्थ. भी स्पष्ट कर दिया। उन्होंने प्रकट किया कि दूसरी व्यवस्था करने में जितना समय लगेगा, उतने समयमें यह प्रथा निर्मूल कर दी जायगी । इसपरसे फरवरी १९१७ में भारतभूषण मालवीयजीने गिरमिट-प्रथाको कतई उठा देनेका कानून पेश करनेकी इजाजत बड़ी धारा-सभामें मांगी, तो वायसरायने उसे नामंजूर कर दिया। तब इस मसले को लेकर मैंने हिंदुस्तानमें भ्रमण शुरू कर दिया । | भ्रमण शुरू करनेके पहले वाइसरायसे मिल लेना मैंने उचित समझा। उन्होंने तुरंत मुझे मिलने का समय दिया । उस समय मि० मेफी, अब सर जानः । मेफी, उनके मंत्री थे । मि० मेफीके साथ मेरा ठीक संबंध बंध गया था। लार्ड चेम्सफोर्डके साथ इस विषयपर संतोषजनक बातचीत हुई। उन्होंने निश्चयपूर्वक तो कुछ नहीं कहा--- परंतु उनसे मदद मिलनेकी आशा जरूर मेरे मनमें बंधी । भ्रमणका आरंभ मैंने बंबईसे किया। बंबईमें सभा करनेका जिम्मा भि० जहांगीरजी पेटिटने लिया । इंपीरियल सिटीजनशिप असोसियेशनके नामपर सभा हुई। उसमें जो प्रस्ताव उपस्थित किये जानेवाले थे, उनका मसदिदा बनानेके लिए एक समिति बनाई गई। उसमें डा० रीड, सर लल्लूभाई शामलदास, नटराजन इत्यादि थे। मि० पेटिट तो थे ही । प्रस्तावमें यह प्रार्थना की गई थी कि, गिरमिट-प्रथा बंद कर दी जाय; पर सवाल यह था कि कब बंद की जाय ? इसके संबंधमें तीन सूचनायें पेश हुई--(१) ‘जितनी जल्दी हो सके', (२) ‘इकतीस जुलाई', और (३) तुरंत' । 'इकत्तीस जुलाई' वाली सूचना मेरी थी। मुझे तो निश्चित तारीखकी जरूरत थी कि जिससे उस मियादतक यदि कुछ न हो तो इस बातकी सूझ पड़ सके कि आगे क्या किया जाय और क्या किया जा