पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३६३

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अर-अ : भय ४ लिए में बालकोंसे भजन गवाता था, नीतिक पुस्तकें पढ़कर सुनाता "; परंतु उससे मनको संतोष नहीं होता था। ज्यों-ज्यों में उनके अधिक संपर्क में आता गया त्यों-त्यों मैंने देखा कि वह ज्ञान पुस्तकों द्वारा नहीं दिया जा सकता। शारीरिक शिक्षा शरीरकी कसरत द्वारा दी जा सकती है और बौद्धिक शिक्षा बुद्धिी कसरत द्वारा । उसी प्रकार आत्मिक शिक्षा अत्मा कसरतके द्वारा ही दी जा सकती है। और आत्माकी कसरत तो बालक शिक्षकके चरणसे ही सीखते हैं। अगर युवक विद्यार्थी चाहे हाजिर हों या न हों शिक्षकको तो रादा सावधान ही रहना चाहिए । लंकामें बैठा हुआ शिक्षक अपने आचरणके द्वारा अपने शिष्योंकी - को हिला सकता है। यदि मैं खुद तो झूठ बोलू, पर अपने शिष्योंको सच्चा मालेका प्रयत्न करूं तो वह फिजूल होगा । डरपोक शिक्षक अपने शिष्योंको वीरता रहीं सिज़ा सकता । व्यभिचारी शिक्षक शिष्योंको संयमक शिक्षा कैसे दे सकता है ? इसलिए मैंने देखा कि मुझे तो अपने साथ रहने वाले युवक-युवतियों के सावन एक पदार्थ-पाठ बन कर रहना चाहिए। इससे मेरे शिष्य ही मेरे शिक्षक बन गये । मैं यह समझा कि मुझे अपने लिए नहीं, बल्कि इनके लिए अच्छा बनना अौर रहना चाहिए और यह कहा जा सकता है कि टॉकटाय-श्रमके लमयका मेरा बहुतेरा संयम इन युवक और युवतियोंका कृतज्ञ है । आश्रममें एक ऐसा युवक था जो बहुत ऊधम करता था, झूठ बोलता था, किसीकी सुनता नहीं था, औरोंसे लड़ता था । एक दिन उसने बड़ा उपद्रव मचाया, मुझे बड़ी चिंता हुई; क्योंकि मैं विद्यार्थियोंको कभी सजा नहीं देता था, पर इस समय मुझे बहुत गुस्सा चढ़ रहा था। मैं उसके पास गया । किसी तरह वह समझाये नहीं समझता था। खुद मेरी आंख में भी धूल झोंकने की कोशिश की । मेरे पास रूल पड़ी हुई थी, उठाकर उसके हाथपर दे मारी; पर भारते हुए मेरा शरीर कांप रहा था। मेरा यह खयाल है कि उसने यह देख लिया होगा। इससे पहले विद्यार्थियों मेरी तरफसे ऐसा अनुभव कमी नहीं हुआ था । वह विधार्थी रो पड़ा, माफी मांगी; पर उसके रोने का कारण यह नहीं कि उसपर मार पड़ी थी। वह मेरा मुकाबला करना चाहता तो इतनी ताकत उसमें थी । उसकी उमर १७ सालकी होगी, शरीर हट्टा-कट्टा था; पर भेरे उस रूल चारलेनै मेरे दुःखका अनुभव उसे हो गया था। इस घटनाके बाद वह मेरे सामने कभी नहीं हुआ; परंतु मुझे