पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/३३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

आत्म-कथा : भाग ४ ‘जाको राखे साइयां इस समय तो मैंने निकट भविष्यमें देश जानेकी अथबा वहां जाकर स्थिर होने की अशा छोड़ दी थी । इधर मैं पत्नीको एक सालका दिलासा देकर दक्षिण अफ्रीका' आया था; परंतु साल तो बीत गया और मैं लौट र सका; इसलिए निश्चय किया कि बाल-बच्चोंको यहीं बुलबा लें । अल-अरचे आ गये । उनमें मेरा तीसरा पुत्र रामदास भी था। रास्ते जहाज कप्तानके साथ वह खूब हिल-मिल गया था और उनके साथ खिलवाड़ करते हुए उसका हाथ टूट गया था। कप्तानने उसकी खुव सेवा की थी । डाक्टरने हुड्ड जोड़ दी थी और जब वह जोहान्सबर्ग पहुंचा तो उसका हाथ लकड़ीकी पट्टी बांधकर रूमालमें लटकाया हुअा अक्षर रखा गया था । जहाजके डाक्टर की हिदायत थी कि जख्मका इलाज किली डाक्टरले ही कराना चाहिए । परंतु यह जाना मेरे मिट्टीके प्रयोग के दौर-दौरेका था । अपने जिन मवविकलोका विश्वास मुझ अनाड़ी वैद्यपर था उनसे भी मैं मिट्टी और पानीका प्रयोग करता था । तव रामदासके लिए दूसरा क्या इलाज हो सकता था ? रामदासही उम्र उस समय आठ बर्धकी थी। मैंने उससे पूछा--- " मैं तुम्हारे जमकर मरहम-पट्टी खुद करू तो तुम डरोगे तो नहीं ? " रामदासने इंकर मुॐ श्योर करनेकी छुट्टी दे दी । इस उम्में उसे अच्छे-बुरेकी पहचान नहीं हो स थी, फिर भी डाक्टर गौर नीम-हकीम का भेद वह अच्छी तरह जानता था । २३ : उसे मेरे प्रयोगोंका हल मालूम था और मुझपर उसका विश्वास था। इसलिए उसकी छ डर नहीं मालूम हो । मैंने उसकी पट्टी खोली । पर उस समय मेरे हाथ कांप रहे थे और दिल धड़क रहा था। मैंने जख्मको धोया और साफ मिट्टीकी पट्टी' रखकर पूर्ववत् पट्टी बांध दी । इस तरह रोज मैं जख्म साफ करके मिट्टीकी पट्टी चढ़ा देता । कोई महीने भरमें घाव सूख गया। किसी भी दिन उसमें कोई खराबी पैदा न हुई और दिन-दिन वह सूखता ही गया । जहाजके डाक्टरने भी कहा था कि डॉक्टरी ।