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अध्याय ११ : अंग्रेजीसे गाड़ परिचय २६१ प्रेरणा ही फल हैं ।। अंतरात्मा न तो मैंने देखा है, न जाना है । संसारकी ईश्वरपर जो श्रद्धा हैं उसे मैंने अपनी बनाली है । यह श्रद्धा ऐसी नहीं है जो किसी प्रकार मिटाई जइ सके । इसलिए अब वह मेरे नजदीक श्रद्धा नहीं, बल्कि अनुभब हो गया है। फिर भी अनुभबके रूप में उसका परिचय कराना एक प्रकारले सत्यार प्रहार करते हैं। इसलिए नहीं कहना यद अधिक उचित होगा कि उनके शुद्ध रूपक रिचय देनेवाला शब्द मेरे यार नहीं है । भेरी यह धारणा है कि इमी अदृष्ट अंतर!त्माके दशवर्ती होकर मैं यह कथा लि रहा हैं । पिछला अध्याय जब मैंने शुरू किया तब उसका नाम रखा था-- ‘अंग्रेजोले परिचय'; परंतु उस अव्ययको लिखते हुए मैंने देखा कि उस परिचयका बर्थन करने के पहले मुझे ‘पुण्यस्मरण' लिखने की आवश्यकता है। तब ‘पुण्यस्मरण लिखा और बदको उसका यह पहला नाम बदलना पड़ा ।। अव इस प्रकरणको लिखते हुए फिर एक नया धर्म-संकट पैदा हो गया है । अंग्रेजोंके परिचय का वर्णन करते समय क्या-क्या लिखु र आइ-क्या न लिखू, यह महत्त्वका प्रश्न उपस्थित हो गया है। यदि आवश्यक बात न लिखी जाये तो सत्यको दाग लग जानेका अंदेशा है; परंतु संभव है कि इस कथाको लिखना भी आवश्यक न हो--- ऐसी दशामें आवश्यक और अनावश्यकके झगड़ेका न्याय . सह्स कर देना कठिन हो जाता है । । कृथाएं इतिहास में कितनं? अपुर्ण होती हैं और उनके लिखने तिर्न कठिनाइयां आती हैं--- इसके नियम पहले मैंने कहीं पढ़ा था; पर उसका । अर्थ मैं आज अधिक अच्छी तरह समझ रहा हूँ । सत्य के प्रयोग की इस आत्मकथामें में वे सभी बातें नहीं लिख रहा हूं जिन्हें मैं जानता हूं । कौन कह सकता है। कि सत्यको दर्शानेके लिए मुझे कितनी बातें लिखनी चाहिएं। या यों कहें कि एकतर्फा अधूरे सबूतकी न्याय-मंदिरमें क्या कीमत हो सकती है ? इन पिछले प्रकरणोंपर यदि कोई फुरसनवाला आदमी मुझसे जिरह करने लगे तो न जाने कितनी रोशनी इन प्रकरणांपर पड़ सकती है ? और यदि फिर एक अलोचक दृष्टिसे कोई उसकी छानबीन करे तो वह कितनी ही ‘पोल' खोलकर दुनियाको हंसा सकता है और खुद फूलकर कुप्पा बन सकता है।