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२६६ अल्मों-कथा : भाग ४ अधिकार नहीं होता । इसी तरह मुमुक्षुको अपना आचरण रखना चाहिए--चह पाठ मैने गीताजीसे सोखा। अपरिग्रही होनेके लिए सम-भाव रखनेके लिए,हेलुका और हृदयका परिवर्तन आवश्यक है, यह बात मुझे दीपककी तरह स्पष्ट दीजिए देने लगी। बस तुरंत रेवाशंकर भाईको लिखा की बीमे की पालिसी बंद कर दीजिए । कुछ रुपया वापस मिल जाए तो ठीक; नहीं तो खैर । बाल-बच्चों और गृहिणीकी रक्षा वह ईश्वर करेगा जिसने उनको और हमको पैदा किया है। यह आशय मेरे उस पत्रका था । पिताके समान अपने बड़े भाईको लिखा-- “आजतक मैं जो कुछ बचाता रहा आपके अर्पण करता रहा, अब मेरी आशा छोड़ दीजिए । अव जो-कुछ बच रहेगा वह यहींके सार्वजनिक कामोंमें लगेगा ।” इस बातका औचित्य में भाई साहबको जल्दी न समझा सका । शुरूमें तो उन्होंने बड़े कड़े शब्दोंमें अपने प्रति मेरे धर्मका उपदेश दिया--“ पिताजी से बढ़कर अक्ल दिखानेकी तुम्हें जरूरत नहीं । क्या पिताजी अपने कुटुंबका पालन पोषण नहीं करते थे,? तुम्हें भी उसी तरह घर-बार सम्ह्लना चाहिए। " आदि--मैंने विनय-पूर्वक उत्तर दिया--“ में तो वही काम कर रहा हूं, जो पिताजी करते थे । यदि कुटुंबकी व्याख्या हम जरा व्यापक कर दें तो मेरे इस कार्यका औचित्य तुरंत आपके खयाल में आ जायगा ।” आव भाई साहबने मेरी आशा छोड़ दी । करीब-करीब अ-बोला ही रक्खा । मुझे इससे दुःख हुआ; परंतु जिस बातको मैंने अपना धर्म मान लिया उसे यदि छोड़ता हूं तो उससे भी अधिक दु:ख होता था । अतएव मैंने इस थोड़े दुःखको सहन कर लिया । फिर भी भाई साहबके प्रति मेरी भक्ति उसी तरह निर्मल और प्रचंड रही । में जानता था कि भाई साहबके इस दुःखका मूल है उनका प्रेम-भाव । उन्हें रुपये-पैसेकी अपेक्षा मेरे सद्व्यवहारकी अधिक चाह थी । पर अपने अंतिम दिनोंमें भाई साहब मुझपर पसीज गये थे । जब वह मृत्यु-शय्यापर थे तब उन्होंने मुझे सूचित कराया कि मेरा कार्य ही उचित और धर्म्थ था । उनका पत्र बड़ा ही करुणाजनक था । यदि पिता पुत्रसे माफी मांग सकता हो तो उन्होंने उसमें मुझसे माफी मांगी थी । लिखा कि मेरे लड़कोंका तुम अपने ढंगसे लालन-पालन और शिक्षण करना। वह मुझसे मिलनेके लिए बड़े अधीरं हो गये थे । मुझे तार दिया । मैंने तार द्वारा उत्तर दिया-- 'जरूर आजाइए ।'