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अध्याय २२ : धर्म-संकट


मिलाकर दिया जा सकता है। पर उससे पूरा पोषण नहीं मिल सकता। तुम जानते हो कि मैं तो बहुत-से हिंदू-परिवारों में जाया करता हूं; पर दवाके लिए तो हम जो बातते हैं वहीं चीज उन्हें देते हैं और वे उसे लेते भी हैं। मैं समझता कि तुम भी अपने लड़केके साथ ऐसी सख्ती न करो तो अच्छा होगा।

"आप जो कहते हैं वह तो ठीक है, और आपको ऐसा कहना ही चाहिए पर मेरी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है । यदि लड़का बड़ा होता तो जरूर उसकी इच्छा जानने का प्रयत्न भी करता और जो वह चाहता वही उसे करने देता'; पर यहां तो इसके लिए मुझे ही विचार करना पड़ रहा है ! मैं तो समझता हूं कि मनुष्यके धर्म की कसौटी ऐसे ही समय होती है। चाहे ठीक हो चाहे गलत, मैने तो इसको धर्म माना है कि मनुष्यको मांसादि न खाना चाहिए । जीवनके साधनोंकी भी सीमा होती हैं । जीने के लिए भी अमुक वस्तुओंको हमें नहीं ग्रहण करना चाहिए। मेरे धर्म की मर्यादा मुझे और मेरे लोगोंको भी ऐसे समयपर मांस इत्यादिका उपयोग करने से रोकती है। इसलिए आप जिस खतरेको देखते है मुझे उसे उठाना होगा। पर आपसे मैं एक बात चाहता हूं। आपका इलाज तो मैं नहीं करूंगा; पर मुझे इस बालककी नाड़ी और हृदयको देखना नहीं पाता है। जल-चिकित्साकी मुझे थोड़ी जानकारी है। उन उपचारोंको मैं करना चाहता हूं; परंतु अगर आप समय-समयपर मणिलालकी तबियत देखनेको आते रहें और उसके शरीरमें होनेवाले फेरफारोंसे मुझे परिचित करते रहेंगे तो मैं आपका उपकार मानूंगा ।"

सज्जन डाक्टर मेरी कठिनाइयों को समझ गये और मेरी इच्छानुसार उन्होंने मणिलालको देखने के लिए आना मंजूर कर लिया ।

यद्यपि मणिलाल अपनी राय कायम करने लायक नहीं था तो भी डाक्टरके साथ जो मेरी बातचीत हुई थी वह मैंने उसे सुनाई और अपने विचार प्रकट करनेको कहा।

"आप खुशीके साथ जल-चिकित्सा कीजिए। मैं शोरबा नहीं पीऊंगा, और न अंडे ही खाऊंगा।" उसके इन वाक्योंसे में प्रसन्न हुआ; यद्यपि मैं जानता था कि अगर मैं उसे दोनों चीजें खानेको कहता तो वह खा भी लेता ।

मैं कूने के उपचारोंको जानता था, उनका उपयोग भी किया था। बीमारीसें