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आत्म-कथा : भाग ३


जाना। जिनकी पहुंच लिखना जरूरी हो उनकी पहुंच लिख देना और जिनके उत्तरके लिए मुझसे पूछना हो पूछ लेना।"

उनके इस विश्वाससे मुझे बड़ी खुशी हुई।

श्री घोषाल मुझे पहचानते न थे। नाम-ठाम तो मेरा उन्होंने बादको जाना। चिट्ठियोंके जवाब आदिका काम आसान था। सारे ढेरको मैंने तुरंत निपटा दिया। घोषाल बाबू खुश हुए। उन्हें बात करनेकी आदत बहुत थी। मैं देखता था कि वह बातोंमें बहुत समय लगाया करते थे। मेरा इतिहास जाननेके बाद तो कारकुनका काम देने से उन्हें जरा शर्म मालूम हुई। पर मैंने उन्हें निश्चिंत कर दिया।

"कहां मैं और कहां पाप! आप कांग्रेसके पुराने सेवक, मेरे नजदीक तो आप बुजुर्ग हैं। मैं ठहरा अनुभवहीन नवयुवक, यह काम सौंपकर मुझपर तो आपने अहसान ही किया है; क्योंकि मुझे आगे चलकर कांग्रेसमें काम करना है। उसके काम-काजको समझनेका अलभ्य अवसर आपने मुझे दिया है।"

"सच पूछो तो यही सच्ची मनोवृत्ति है। परंतु आजकलके नवयुवक ऐसा नहीं मानते। पर मैं तो कांग्रेसको उसके जन्मसे जानता हूं। उसकी स्थापना करनेमें मि॰ ह्यूमके साथ मेरा भी हाथ था।" घोषाल बाबू बोले।

हम दोनोंमें खासा संबंध हो गया। दोपहरके खानेके समय वह मुझे साथ रखते। घोषाल बाबूके बटन भी 'बैरा' लगाता। यह देखकर 'बैरा' का काम खुद मैंने लिया। मुझे वह अच्छा लगता। बड़े-बड़ोंकी ओर मेरा बड़ा आदर रहता था। जब वह मेरे मनोभावसे परिचित हो गये तब अपनी निजी सेवाका सारा काम मुझे करने देते थे। बटन लगवाते हुए मुंह पिचकाकर मुझसे कहते-" देखो न, कांग्रेसके सेवकको बटन लगानेतककी फुरसत नहीं मिलती। क्योंकि उस समय भी वह काममें लगे रहते हैं।" इस भोलेपनपर मुझे मनमें हंसी तो आई, परंतु ऐसी सेवाके लिए मनमें अरुचि बिलकुल न हुई। उससे जो लाभ मुझे हुआ उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती।

थोड़े दिनोंमें मैं कांग्रेसके तंत्रसे परिचित हो गया। बहुतसे अगुआओंसे भेंट हुई। गोखले, सुरेंद्रनाथ आदि योद्धा आते-जाते रहते। उनका रंग-ढंग मैं देख सका। कांग्रेसमें समय जिस तरह बरबाद होता था, वह मेरी नजर में